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________________ १८ आ पहुँचे, जहाँ विक्रमादित्य नामका राजा था । कात्यायनगोत्रीय ब्राह्मण देवपि પિતા કૌર વેવશ્રી માતાનેં પુત્ર વિદ્વાન્ સિદ્ધસેન વૃઢવાવી પાસ થયા । સને उनकी ख्याति सुनी थी, अत विना परिचयके ही पूछा कि "हे मुनि | आजकल वृद्धवादी यहाँ है कि नहीं ?" मुनिने कहा. " वह मैं स्वयं ही हूँ ।" यह सुनक सिद्धसेन ने कहा कि "बहुत समय से वादगोष्ठी करनेका मेरा सकल्प है । उसे आप पूर्ण करे ।" सूरिने उत्तरमे कहा कि "हे विद्वन् ! तुम अपने मनको सन्तुष्ट करने के लिए सभामे क्यो नही जाते ?" सूरिके ऐसा कहनेपर भी जब उसने वही वाद करनेका आग्रह चालू रखा, तव सूरिने पासमे उपस्थित ग्वालोको ही सभ्य बनाया और वादकर्या चलाने को कहा । सिद्धसेनने पहले 'सर्वज्ञ नहीं है ऐसा પૂર્વપક્ષ રહે સે યુતિસે સ્થાપિત યિા। વૃદ્ધવાવીને સ્થિત સભ્ય જિતે पूछा कि "जरा कहो तो सही कि इस विद्वान्‌का कहा हुआ तुम कुछ समझे भी हो ?" वालोने कहा कि "यारसियो ( फारसी बोलनेवालो ) के जैसा अस्पष्ट कथन कैसे समझमे आ सकता है ?" यह सुनकर बद्धवादीने पहले तो वालीसे कहा कि "इस विद्वान्‌का कहना में समझा हूँ। वह ऐसा कहते है कि 'जिन नहीं है' । क्या इनका ऐसा कहना सच है ? तुम कहो ।" इसपर ग्वालोने कहा कि "जैन मन्दिर में जिनमूर्ति के होनेपर भी 'जिन नहीं है' ऐसा कहनेवाला यह ब्राह्मण मृपावादी है।" વૃત્તના વિનોવ ને ઉપરાન્ત વૃઢવાવીને સિદ્ધસેન પૂર્વપક્ષ નવાવમે યુત્તિને સર્વાળા બસ્તિત્ત્વ સિદ્ધ નિયા। સિદ્ધસેનને હર્ષસે રાવ ફોર ટૂરિસે कहा कि "आप जीत गये । अब मुझे शिष्य के रूपमे स्वीकार करे, क्योंकि जीतनेवालेका शिष्य वननेको मेरी प्रतिज्ञा है ।" सूरिने सिद्धसेनको जंनी दीक्षा देकर शिष्य बनाया और कुमुदचन्द्र नाम रखा । कुमुदचन्द्र शीघ्र ही जैन-सिद्धान्तोका पारगामी हो गया । तव गुरुने उसे आचार्यपदपर स्थापित किया और पहलेका ही मिद्धमेन नाम पुन रखा । इसके पश्चात् गुरु सिद्धसेनको गच्छ सौंपकर દૂસ स्थानपर विहार कर गये । J एक बार सिद्धमेन बाहर जा रहे थे । उस समय उन्हें विक्रम राजाने देखा और कोई जान न पाये इस तरह उसने उन्हें मनसे प्रणाम किया । सूरि यह बात समझ गये और उन्होंने उस राजाको ऊँची आवाजले धर्मलाभ दिया । इस चतुराईले प्रमन्न होकर राजाने मूरिको एक करोड सुवर्ण टक दानमे दिये और जाचक यह लिख लेने के लिए कहा कि "दूरमे ही हाथ ऊचा करके धर्मलाभ देनेवाले को विक्रमराजाने करोड टक दिये ।" बादमे सिद्धसेनको बुला५९ दान ले जानेके लिए राजाने कहा । जवानमे सूरिने कहा कि "मैं यह
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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