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________________ સત્રાન્તિો પુરાની વ્યાક્યો સ્વીર છે અનુસાર વસને વિના व्याख्या में सुधार किया है। ___योगाचारभूमिशास्त्र असके गुरु मंत्रयकी कृति है । असंगको समय साकी. चौथी सदीको मध्यभाग माना जाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्यक्ष लक्षणमें अभ्रान्त शब्दका प्रयोग और अभ्रान्तताका विचार विक्रमकी चीथीपाँचवी शताब्दी के पहले भी भली भाँति ज्ञात था, अर्थात यह शब्द सुप्रसिद्ध था। अत सिद्धसेन दिवाकरके न्यायावतारमें आनेवाले मात्र अभ्रान्त पदपरसे उन्हे धर्मकातिके वाद रखनको आवश्यकता नहीं है। सिद्धसेन दिवाकरको मैत्रेयके वाद, किन्तु धर्मकीर्तिसे पहले माननमे किसी भी प्रकारका अन्तराय नहीं आता। दूसरी बात प्रो० जेकोबीने कही है, वह यह है कि न्यायावतार के प्रत्यक्ष-लक्षण जो स्वार्थ और परार्थका भेद सिद्धसेनने बताया है, वह धर्मकीतिके केवल अनुमानके ही स्वार्थ-परार्थ भेदके सामने है । परन्तु यह बात भी ठीक नहीं है, क्योकि सिद्धसेनका उक्त विचार सिर्फ धर्मकीतिके ही सामने है, ऐसा माननेका तनिक भी आधार नही है। दूसरी तरहसे यदि सिद्धसेन धर्मकीतिके पूर्ववर्ती ठहरते हो, तो यह देखना अलवत्ता वाकी रहता है कि तब सिद्धसेनका यह विचार किसके सामने अथवा किसके अनुसार है ? वैशेषिक एव न्यायदर्शनम अनुमानके ही स्वार्थ-परार्थ भेद होनेकी वात धर्मकीतिक पूर्ववर्ती न्यायमुख' और 'न्यायप्रवेश' जैसे वौद्ध न्यायग्रन्योमे भी स्पष्ट रूपसे उल्लिखित है। अत सिद्धसेनका कथन धर्मकातिके ही सामने है, ऐसा विधान निराधार ठहरता है। १. दिना योगाचार-विज्ञानवादका अनुगामी होने से उसकी व्याख्या विज्ञानवादके अनुसार ही है । विज्ञानवादी विज्ञानसे भिन्न बाह्य वस्तुका अस्तित्व नहीं मानते। उनके मतसे सभी पालम्बन जान भ्रान्त ही होते है, अतः 'अभ्रान्त' विशेषण श्रीवश्यक नहीं है। इसीलिए वे प्रत्यक्ष लक्षणमें अभ्रान्त पद नहीं रखते, क्योकि उनके मतानुसार उस पदका व्यावय कुछ भी नहीं है। यही कारण है कि 'न्यायमुख' और 'न्यायप्रवेश' गत प्रत्यक्षका लक्षण अभ्रान्त पदसे रहित ही है । देखो प्रो० दलसुखभाई मालवणिया द्वारा सम्पादित 'न्यायापतारवातिकवृत्तिटिपण' पृ० २८९ तथा 'धर्मोत्तरप्रदीप' । २. ज० रो० ए० सो०, जुलाई १९२९, पृ० ४७२ । ३. ज० रो० ए० सो०, अक्तूबर १९२९, पृ० ८७० । जुलाईके अंकम असंगको कृति लिखा है, परन्तु यह भूल है ऐसा कहकर अक्तूबर के अंकमें सुधार किया है। ४ Keith, Indian Logic and Atomism p. 23.
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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