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________________ ११३ या अज्ञानवादका तात्पर्य वस्तुको अज्ञेयता, अनिर्णेयता, अवाच्यतामे, जान पडता है । यदि विरोधी मतोका समन्वय एकान्तदृष्टिसे किया जाय, तव तो फिर पक्ष-विपक्ष समन्वयका पत्र अनिवार्य है । इसी चक्रको भेदनेका मार्ग भगवान् महावीरने बताया है । उनके सामने पक्ष-विपक्ष समन्वय और समन्वयका भी विपक्ष उपस्थित था । यदि वे ऐसा समन्वय करते, जो फिर एक पक्षका रूप ले ले, तब तो पक्ष-विपक्ष समन्वयके चक्की गति नही रुकती । इसीसे उन्होने समन्वयका एक नया मार्ग लिया, जिससे यह समन्वय स्वयं आगे जाकर एक नये पक्षको अवकाश दे न सके । 1 J t , उनके समन्वयको विशेषता यह है कि वह समन्वय स्वतंत्र पक्ष न होकर सभी विरोधी पक्षोंका यथायोग्य सम्मेलन है । उन्होने प्रत्येक पक्षके व्रलावलकी ओर दृष्टि दी है । यदि वे केवल दौर्बल्यकी ओर ध्यान दे करके समन्वय करते, तव सभी पक्षोंका सुमेल होकर एकत्र सम्मेलन न होता, किंतु ऐसा समन्वय उपस्थित हो जाता, जो किसी एक विपक्षके उत्थानको अवकाश देता । भ० महावीर ऐसे विपक्षका उत्थान नही चाहते थे । अतएव उन्होने प्रत्येक पक्षकी सचाईपर भी ध्यान दिया और सभी पक्षोको वस्तुके दर्शनमे यथायोग्य स्थान दिया । जितने भी अवाधित विरोधी पक्ष थे, उन सभीको सच बताया; अर्थात् सम्पूर्ण सत्यका दर्शन तो उन सभी विरोधोंके मिलनेर्स ही हो सकता है, पारस्परिक निरासके द्वारा नही, इस वातकी प्रतीति नयवादके द्वारा करायी । सभी पक्ष, सभी मत पूर्ण सत्यको जाननके भिन्न-भिन्नं प्रकार है । किसी एक प्रकारका इतना प्राधान्य नही है कि वही सच हो और दूसरा नही | सभी पक्ष अपनी-अपनी दृष्टिसे सत्य है और इन्ही सब दृष्टियोके यथायोग्य सगमसे वस्तुके स्वरूपका भास होता है । यह नयवाद इतना व्यापक है कि इसमे एक ही वस्तुको जानने के सभी सम्भावित मार्ग पृथक्-पृथक् नयरूपसे स्थान प्राप्त कर लेते है । वे तब नय कहलाते है, નવ બિપની-પત્ની મર્યાવામે રહે, અપને પક્ષા સ્પષ્ટીરા રે કૌર દૂસરે पक्षका मार्ग अवरुद्ध न करे | परन्तु यदि वे ऐसा नही करते, तो नय न कहे जाकर दुर्नय वन जाते । इस अवस्थामे विपक्षोका उत्थान साहजिक है । सारांश यह है कि भगवान् महावीरका समन्वय सर्वव्यापी है अर्थात् सभी पक्षोका सुमेल करनेवाला है, अतएव उसके विरुद्ध विपक्षको कोई स्थान नही रह जाता। इस समन्वयमे पूर्वपक्षीका लोप होकर एक ही मत नही रह जाता, किन्तु पूर्वके सभी मत अपने-अपने स्थानपर रहकर वस्तु
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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