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________________ १०२ सन्मति-प्रकरण अर्थ विना क्रियाका ज्ञान और ज्ञानशून्य मात्र क्रिया ये दोनो एकान्त होनेसे जन्म-मृत्युके दु खसे निर्भयता देने में असमर्थ है। विवेचन पिछली गाथाम क्रिया के साथ जानकी आवश्यकता बताई है। यहाँ इन दोनोका समन्वय सिद्ध करने के लिए अनेकान्तदृष्टिका उपयोग करने की __ आत्माको शक्तियोका एक-सा विकाम माचे बिना कोई भी फल प्राप्त नही किया जा सकता। उसकी मुख्य दो शक्तियाँ है एक चेतना और दूसरी वीर्य । ये दोनो शक्तियाँ आपसमें ऐमी गुयी हुई है कि एकके विकास के विना दुसरीका विकास अधूरा ही रह जाता है। अत दोनो शक्तियोका एक नाय विकास आवश्यक है। चेतनाका विकास अर्थात् ज्ञान प्राप्त करना और वीर्यका विकास अर्थात् उस जानके अनुसार जीवनका निर्माण करना। सूझ न हो तो योन्य रूपसे जीवनको निर्मिति कैसे हो सकती है ? और सूझ होने पर भी उनके अनुसार आचरण न किया जाय तो उससे जीवनको क्या लाभ? इसीलिए कहा गया है कि ज्ञान और ५ किया ये दोनो एकान्त अर्थात् जीवनके अलग-अलग छोर है। ये दोनो छोर योग्य रूपसे जीवन में व्यवस्थित हो तभी वे फलसावक बन सकते है, अन्यथा नहीं। इस । वारेमे अन्व-पगुन्याय प्रसिद्ध है। उपसहारमे जिनवचनकी कुशलकामना भई निच्छादसणसमूहमइयरस अमयसाररस । जिणवयणरा भगवो मंत्रिगसुहा हिस्म ॥६६॥ अर्थ मिथ्यादर्शनीक समूहरूप, अमृत (अमरता) देनेवाले और मुमुक्षुओ द्वारा अनायास ही समझमे आ सके ऐसे पूज्य जिनवचनका भद्र (कल्याण) हो। ... विवेचन- यहाँ जिनवचनकी कुशलकामना करते हुए अन्यकारने उसे तीन दश दिये है : १ 'मिथ्यादर्शनीके समूहरू५' इस विशेषणसे ऐसा सूचित किया है निकी विशेषता भिन्न-भिन्न और एक-दूसरीकी अवगणना करनेसे मिय्या __ " ली अनेक विचारसरणियोको योग्य रूपमें रखकर उनकी उपयोगिता करना हो-जवाह है। २. 'सविनसुखाधिगम्य' इस विशेषणसे ऐमा सूचित किया है र विरोधी अनेक दृष्टियोका समुच्चय होनेसे चाहे जितना जटिल
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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