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________________ तृतीय काण्ड : गाथा-४९ ८९ अजीव तत्वके अन्तर्गत धर्मास्तिकाय आदिका अस्तित्व युक्तिसे सिद्ध हो सकता है, परन्तु उनका स्वरूप तो अन्तत आगमवादपर ही आश्रित है। आल आदि तत्त्वामे भी अमुक १२॥ युक्तिसाध्य हो सकता है, परन्तु उनका अमुक भाग आगमवादका ही विषय होता है। अत इन दोनो वादोको विषयमर्यादा समझकर ही प्रत्येक तत्वका निरूपण करनेमे उस-उस वादका यदि अवलम्बन लिया जाय, तोश्रोताओको जन प्रवचनके अपर आदरशील बनाया जा सकता है, अन्यया असम्भव, असगति आदिदोष देखकर वे शास्त्र के अपरकी अपनी श्रद्धा भी शायद खो बैठे। नयवादको चर्चा परिसुद्धो नयवानो आगममेत्तत्थसाहो हो । सो चैव दुणिगिण्णो दोणि विपक्से विधागई ॥ ४६॥ जावइया वणवहा तावइया चेव होति यवाया । जावइया णयवाया तावइया चेव परसमय। ॥४७॥ जं काविलं दरिसणं एवं दवष्ट्रियरा वत्तवं ।। सुद्धोणतणार उ परिसुद्धो पज्जवविधप्पो ॥४८॥ दोहि विणएहिणीअं सत्थमुलूएणतह वि मिच्छत । जं सविसअप्पहाणतणेण अण्णोण्णणिरक्खा ॥ ४६॥ अर्थ परिशुद्ध नयवाद केवल श्रुतप्रमाणक विषयका साधक बनता है, और यदि वह गलत रूपसे रखा जाय तो दोनो पक्षोका पात करता है। जितने वचनोक मार्ग है उतने ही नयवाद है और जितने नयवाद है उतने ही परसमय है। जो कापिल (कपिल द्वारा कहा गया साख्य) दर्शन है वह द्रव्यास्तिकका वक्तव्य है। शुद्धोदनके पुत्र अर्थात् बुद्ध का दर्शन तो परिशुद्ध पर्यायनयका विकल्प है। યદ્યપિ ઝનૂન મર્યાત્ જગાવને વોનો નવો અપને શાસ્ત્ર વર્શની प्ररूपणा की है, फिर भी वह मिथ्यात्व अर्थात् अप्रमाण है, क्योकि ये दोनो नय अपने-अपने विषयकी प्रधानता के कारण परस्पर एक-दूसरेसे निरपेक्ष है।
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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