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________________ । TI उपदम तृतीय कोड : गाथा-२८ ७३ ___ अर्थ यह प्रबन्ध केवल शिष्योकी बुद्धिक विकासके लिए है, अन्यथा स्वशास्त्रमे तो इस तरह कयाके आरम्मके लिए भी अवकाश नहीं है। क्योकि जन उपदेशमे न तो भेदवाद ही है और न अमेदवाद ही। वही है ऐसा माननेवाले जिनोपदेशकी अवज्ञा करने के कारण कुछ भी नही जानते। विवेचन द्रव्य और गुणके भेद-अभेद पर इतनी अधिक लम्बी चर्चा करने के ५२चात् अन्धकार स्वयं ही उसके प्रयोजन के विषयमे कहते है कि सच पूछ। जाय तो ऐसी चर्चाके लिए जैन सिद्धान्तमे स्थान ही नहीं है, क्योकि उसमे गुण-गुणीका ___ मात्र भेद या मात्र अभेद माना ही नहीं गया। जो गुणको गुणीसे भिन्न ही अथवा गुणीस्वरूप ही मानते है वे वस्तुको यथार्थताका लो५ करनेसे वस्तुत अज्ञानी ... ही हैं। जन शास्त्रमे एकान्तवादके लिए स्थान ही नही है । ऐसा होने पर भी यहाँ एकान्तवादके पूर्वपक्षकी भूमिका पर जो विस्तृत चर्चा की गई है उसका प्रयोजन केवल जिज्ञासु शिष्योकी विचारशक्तिको विकसित करना ही है। इसलिए उन्हें जानना चाहिए कि पूर्वपक्ष जनमताश्रित नही, किन्तु अन्यमताश्रित है । भेदवाद न्याय, वशेषिक आदि दर्शनीकी छाया है, तो अभेदवार साख्य आदि दर्शनीकी छाया है। इन दोनो वादोके समुचित समन्वयमे जन अनेकान्तदृष्टि समा जाती है। अनेकान्तकी व्यापकता भवणा विहु भइयत्वा जइ भयणा भयइ संपदवाई। एवं भयणा णियसो वि होइ समयाविरोहण ॥२७॥ णियमेण सदहतो पकाए भावो न सहइ । हंदी अपज्जवसु वि सदहणा होइ अविभत्ता ॥२८॥ अर्थ जिस तरह अनेकान्त सब वस्तुओको विकल्पनीय करता है, उसी तरह अनेकान्त भी विकल्पका विषय बनने योग्य है। ऐसा होनेसे सिद्धान्तका विरोध न हो इस तरह अनेकान्त एकान्त भी होता है। छ कायोको नियमसे श्रद्धा करनेवाला पुरुष भावसे श्रद्धा नहीं करता, क्योकि अपर्यायोमे अर्थात् द्रव्योमे भी अविभक्त श्रद्धा होती है।
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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