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________________ द्वितीय काण्ड : गाथा-४३ ५७ कभी केवलीके रूपमे व्यवहृत होता है, अतएव यह जीवद्रव्य अकेवल और केवल पर्यायसे अभिन्न है। यदि वह पर्यायोंसे मात्र भिन्न ही है ऐसा माने, तो पर्यायोका भेद पर्यायोमे ही रहेगा और जीवमे उसका व्यवहार ही नहीं होगा। “अभिन्न पर्यायोकी भिन्नताका उपपादन सखेज्जमसंखेज्जं अणकप्पं च कवलं णाणं। तह रागदोसमोहा अण्णे वि य जीवपजाया ॥४३॥ अर्थ- केवलज्ञान संख्यात, असख्यात और अनन्त प्रकारका है। ફસી તરહ રામ, દેષ પર્વ મોકપ દૂસરે મી નીવપર્યાય સમશને चाहिए । (४३) विवेचन शास्त्रमे केवलज्ञानको संख्यात, असख्यात और अनन्त प्रकारका २ कहा है। इसी तरह राग, द्वेप और मोहरू५ वैभाविक पर्यायोको भी सख्यात, असख्यात और अनन्त प्रकारका कहा है। प्रत्येक पर्यायमे सख्या-भेदका जो यह शास्त्रीय कथन है उससे सूचित होता है कि भगवान्की दृष्टिमे द्रव्य और पर्यायका मात्र अभेद ही नही, भेद भी है। भेदके विना संख्या का वैविध्य सम्भव ही नही हो सकता। अत द्रव्य और पर्यायके बीच अभेदकी भांति भेद भी मानना चाहिए । मतलब कि ये दोनो कचित् भिन्न-अभिन्न है । द्वितीय काण्ड समाप्त
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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