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________________ प्रथम काण्ड . गाया-१३ उप (५) जति विति य भावानियमेण पज्जवणयरा। दवद्वियरस सव्वं सया अणुप्पन्नमविणटुं ॥११॥ अर्थ पर्यायारिककी दृष्टिमे सभी पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते है और नष्ट होते है। द्रव्यास्तिककी दृष्टिमे सभी वस्तुएँ सर्वदा लिए उत्पत्ति एव विनाशरहित ही है। विवेचन एक नय वस्तुके स्थिर रूपका ग्राहक है, जबकि दूसरा उसके अस्थिर रूपका है। सत् अर्थात् सम्पूर्ण वस्तुका लक्षण दव्य पज्जवविध्यं दवविउत्ता य पज्जवा णत्थि । उपाय-दिइ-भंगा हंदि दनियलक्षणं एवं ॥१२॥ अर्य- उत्पाद एव नाश६५ पर्यायासे रहित द्रव्य नहीं होता और द्रव्य अर्थात् ध्रुवाशसे रहित पर्याय नहीं होते, क्योकि उत्पाद, नाश ए स्थिति ये तीनो द्रव्य सत्का लक्षण है। विवेचन लक्षण हा वस्तुका यथार्थ एव पूर्ण रूप यहाँ बतलाया है। कोई भी वस्तु उत्पाद-विनाशरहित और मात्र स्थिर नही है । इसी तरह कोई भी वस्तु स्थिरतारहित और मात्र उत्पाद-विनाशवाली नहीं है, क्योकि वस्तुका स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह मूल रूपमे स्थिर रहने पर भी निमित्तके अनुसार भिन्न-भिन्न रूपोमें बदलती रहती है। इसीलिए एक ही वस्तुमे स्थिरत्व एव अस्थिरत्व विरुद्ध नहीं है, किन्तु वास्तविक हैं । इन दोनो रूपोके होनेपर ही वस्तु पूर्ण बनती है। दोनो नय अलग-अलग मिथ्यादृष्टि कसे बनते है इसका स्पष्टीकरण ए५ पुण संगहो पाकिमलक्खणं दुवण्हं पि । तन्हा मिच्छट्टिी पत्तेयं दो वि मूलणया ॥१३॥ १ तुलना करो पचारितकाय १ १२ तथा तत्वार्थसूत्र ५२९ । जैन-ग्रन्थों में उत्पाद-स्थिति-भंगका जो समर्थनात्मक विचार देखा जाता है उसके सामने नागार्जुन जैसोंकी विरुद्ध विचार-परम्परा थी। नागार्जुनकी मध्यमककारिकामें 'सस्कृतपरीक्षा' नामका एक प्रकरण (पृ ४५-७ ) आता है । उसमें वस्तुके लक्षण उपमें माने जानेवाले उत्पाद-स्थिति-भगका निरास किया गया है । ऐसा निरास उसके पीछेके दूसरे पौद्ध-ग्रन्थोंमें भी आता है । ऐसी विरुद्ध परम्परा के सामने अपने पक्षका बचाव करनेके लिए जनताकि विद्वानोंने उत्पादादि त्रिपदी के समर्थनका सर्वत्र प्रयत्न किया है ।
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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