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________________ ११८ पर्यायका विचार करते समय एकागुणकालक, गुणकाल इत्यादिका जो निर्द। किया है, वह 'भगवतीसूत्र'गत पा० है । और भी ऐसे आगमावलम्बी निद। सन्मतिमे सुलम हैं। जव सन्मतिको रचना उपल० सर्व श्वेताम्बरसम्मत आगमोके आधारपर । निश्चित रूपसे हुई जान पडती है, तब हमने सिद्धसेनका श्वेताम्वरीय रूपसे जो निर्दश किया है, उसका भाव स्पष्ट हो जाता है । मूलाचार, धवला आदि दिगम्बर अन्योम सिद्धसेन और उनकी कृतियोमेसे उल्लेख आते है। उसका कारण यही है कि सन्मतितकं और बत्तीसी जैसी मिद्धसेनको कृतियां बहुत प्रभावक मानी जाती रही। दोनो परपराके ग्रन्थोम प्रभावक आचार्योका परस्पर निर्द। आदरसह देखा जाता है, जैसे कि समन्तभद्र, अकलक जसोको निर्द। श्वेताम्वरीय अन्योमे है हो। सिद्धसेन उन आगमोको व्याख्यामे मतभेद रखते है और कभीकमी आगमिक पाठोमे जो सीधा अर्थ निकलता है, उससे विपरीत मान्यता भी रखते है, किंतु उन पाठोका स्वसम्मत अर्य करके भी अपने मत के साथ आगमोकी संगति दिखाते हैं, पर आगमके उन पाठोका निराकरण नहीं करते या उन्हें अमान्य नही करते। यह इस बातका प्रमाण है कि सिद्धसेनके लिए वे ओगम प्रमाणभूत थे। નિવતાર ર નવાર श्रीयुत मुख्तारजीने मुनिश्री पुण्यविजयजाके लेखके आधारपर मान लिया है कि नियुक्तिकार भद्रबाहु विक्रमकी छठी शताब्दीक है, परन्तु मुनिश्री पुण्यविजयजीके उसी लेखके इतर अशपर उनका ध्यान नहीं गया। मुनिश्री पुण्यविजयजीने उसी लेखमें स्पष्ट कहा है कि विक्रमीय पांचवी सदीमे गोविन्द भिक्षु नामक इस प्रकार के अनेक सूत्र भगवतीसूत्रके १४वें शतकके दस उद्देशमें तथा १८३ शतके आठवें उद्देशमें भी आते है। १. देखो सन्मतितके तीसरे काण्डकी गाथाएँ जं च पुण अरिहया तेसु तेसु सुत्सु गोयमाईण। .. पज्जवसण्णा णियमा पागरिया ते॥ ५ज्जाया ॥११॥ जंपति अस्थि समय एगगुणो दसगुणो अगतगुणो। • रूपाई परिणामो भण्णइ तम्हा गुणविसेसो ॥१३॥ एक गुणकालक, दशगुणकालक आदिका सूचक भगवती सूत्रका पा० इस प्रकार है--'एगगुणकालए दुगुणकालए' - ( शत० ५, उ० ७, सू० २१७) इत्यादि ।
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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