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________________ - आर्य अर्थात् श्रेष्ठमति पुरुष दोषोको छोडते है, जबकि पृथ'जन अर्थात् साधारण मनुष्य पर आदि (स्वजन परिवार .) का त्याग करके निकल जाते है, परन्तु परोपकारमग्न पुरुष तो इन दोनोका अनुसरण करते है (१६) इस उक्तिम कनि व्यवहार और निश्चय दोनो प्रकारको प्रव्रज्याका समन्वय किया है, ऐसा प्रतीत होता है। इसमें प्रयुक्त 'पृथजन' २००८ बौद्ध ग्रन्थोमें अधिक प्रसिद्ध है, साथ ही इसमे परोपकारी सन्तका विशिष्ट लक्षण भी सूचित किया गया है। कर्मका समान या असमान फल जिस निमित्तके सम्बन्धपर अवलम्बित है, उस निमित्तको ज्ञान प्राप्त करना ही चाहिए, क्योकि वस्तुको जाननेवाला वादमे सन्ता५ प्राप्त नहीं करता । जीव मनसे ही विषयोको भोगता है और मनसे ही छोडता है । ऐसा होनेसे कर्मका निमित्त शरीरमे है या बाहर है, बहुत है या थोडा है - यह किस तरह जाना जाय ? ( १७-८) ऐसा कहकर ग्रन्य'कर्ता'मन एव मनुष्याणा कारण बन्धमोक्षयो' इस सिद्धान्तका स्पष्टीकरण करते प्रतीत होते है। ममत्वसे अहकार नही, परन्तु अहकारसे ममत्व माना जाता है, क्योकि सकल्प अर्थात् बहकारके बिना ममता सम्भव ही नहीं है। अत अहकारमें ही अशिव यानी दुखको मूल है। (१९) ऐसा कहकर सिद्धसेन अहकारको ही सभी दोषीको मूल सूचित करते है और उसके उपायके रूप में नामस्मीति'मै नही हूँ, ऐसी बौद्ध भावनाको लेकर और उसे जैन दृष्टि से अपनाते हुए कहते है कि यह भावना अभावात्मक और भावात्मक उभय रूप है। ऐसा कहकर का सुख-दुखके स्वरूपका वर्णन करते है। वे ज्ञान और क्रिया दोनोका सम्मिलित भावसे सार्थकता बताते हुए कहते है कि जैसे रोगको मात्र ज्ञान रोगको शान्ति नही कर सकता, वैसे ही आचरणशून्य शानके वारमें भी समझना चाहिए। .... ( २७ ) ___अारहवी बत्तीसीम अनुशासन (शिक्षा) करते समय कित-कितनी बातोपर ध्यान रखना चाहिए, यह बतलाने के लिए सिद्धसेनने देश, काल, परम्परा, आचार, वय और प्रकृतिकी ओर ध्यान आकर्षित किया है। (१) ___शासन करनेवालेमे कितने गुण होने चाहिए, यह बतलाते हुए उन्होने कहा है कि जिसमे अन्दरकी और बाहरकी शुद्धि हो, जिसमें सौम्यता हो जिसमें तेज और करुणा दोनो हो, जो अपने और दूसरोके प्रयोजनको जानने के साथ-हीसाय वाक्पटु भी हो तया जिसने आत्माके ऊपर काबू प्राप्त किया हो, वही शासक हो सकता है। (२)
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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