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________________ वचनस्तुतिकी रचना करते है। राजसभाका परिचय भी उस स्तुतिपरसे तया वादविषयक वत्तीसियोके ऊपरसे स्पष्ट होता है । ऐसा लगता है कि वादगोष्ठीमे तो स्वयं उन्हें खडा रहनका और दूसरोकी वैसी गोष्ठियोको प्रत्यक्ष देखनेका असा बहुत बार मिला होगा, क्योकि वे वादके नियमोका और जल्प-वितण्डाके दोपोका अपनी नजरसे देखा हो, पैसा तादृश वर्णन करते है। (ज) प्रतिभा--उनकी प्रतिभा नवसर्जनकारिणी थी ऐसा लगता है, क्योंकि उन्होने स्तुतियोकी रचनामे पूर्वाचार्योका अनुकरण करने पर भी उनमे बहुत-सी नवीनताका समावेश किया है और दूसरोकी कही हुई वस्तुको एकदम नये ढगसे कहा है। उनकी कृतियोमें कई मन्तव्य तो सर्वथा अपूर्व दिखायी पड़ते है और पालूप्रथाके विरुद्ध विचार उपस्थित करने का प्रतिभावल भी उनमें है। (झ) तत्त्वज्ञभक्ति उनकी भगवान महावीरके प्रति भक्ति मात्र एक श्रद्धालुको भक्ति नहीं है, परन्तु तत्वज्ञकी भक्ति है, क्योकि उन्होने अपनी स्तुतियोमे जो भक्तिभाव प्रदर्शित किया है, उसके पीछे प्रेरकतत्व मुख्यरूपसे महावोरके तत्वज्ञानका गहरा और मर्मग्राही भान ही है। महावीरके तत्वज्ञानको जिन-जिन बातोने उनके हृदयपर गहरा असर किया और जिनके कारण वे जनदर्शनરસિક વને, ડન વાતો વિશેષતા નમારપૂર્ણ ઢગલે વર્ણન કર મહાવીર प्रति अपनी जाग्रत् एव सजीव श्रद्धा तथा भक्ति प्रकट करते है। वस्तुते. तो २ तुतिके वहाने वे महावीरके तत्त्वज्ञानको उत्कृष्टता दिखलाने का प्रयत्न करते है। (३) वत्तीसियोंके परिचयकोवहिरग और अन्तरगइन दो भागोमें विभक्त कर आगे चले। बहिरंग परिचय बत्तीसियोकी भाषा संस्कृत है, परन्तु वह साधारण कक्षाकी न होकर दार्शनिक, मालकारिक और प्रतिभासम्पन्न विद्वान् कविके योग्य प्रौढ एक गम्भीर है। पधोका वन्ध कालिदासके पद्यो जसा सुस्लिम और रीति वदर्भाप्राय है। प्राप्त पत्तीसियो में प्राय १७ छन्दोका उपयोग किया गया है। વાવઠ્ઠલ વર્ણન કરવાહી સતિવી વત્તીસી સિવા સમી તાનિ વતીसियोमे केवल अनुष्टुप् छन्द है और उनमे आदि तथा अन्तम छन्दोमेद भी नहीं है, जव कि स्तुति, समीक्षा और प्रशसात्मक वत्तीसियों में अलग-अलग छन्द है और उनमे प्रारम्भ तथा अन्तमें प्राय छन्दोभेद भी है। ____अंतरंग परीक्षा--विषयकी दृष्टि से स्थूल वर्गीकरण करें, तो प्राप्य वत्तीसियोके मुख्य रूप से तीन विभाग होते है। पहली पांच, ग्यारहवी और इक्कीसवी ये सात स्तुत्यात्मक है, छठी और आठवी समीक्षात्मक है और वाकीकी सब दार्शनिक और वर्णनात्मक है।
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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