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________________ रीतिसे दिखलाया है । केवल दर्शन और केवल ज्ञानको उत्पत्ति कमसे होती है,ऐसा मत पहलेहीसे आगमपरम्परामें प्रसिद्ध था। इन दोनोको उत्पत्ति साथ ही होती है, ऐसा मत भी पहलेसे चला आता था। इन दोनो मतोके सामने सिद्धसेनने अपना अभेदवाद रखा । इस वादकी स्थापना उन्होंने प्रस्तुत दूसरे काण्ड में की है। यह र स्थापना यद्यपि तवलपर अवलम्बित है, तथापि उसमे सिद्धसेनने प्रसग आनेपर श्रद्धा और ज्ञानका ऐक्यविषयक अपना मत भी जता दिया है। दर्शन और ज्ञान तथा श्रद्धा और जानका अभेद ही प्रस्तुत काण्डगत सिद्धसेनकी मीमासाकी विशेषता है । यद्यपि चूणिके आधारपर नन्दीसूत्रकी टीका रचनेवाले याकिनीसूनु हरिभद्र, नवागीवृत्तिकार अभयदेव तथा उनके अनुगामी मलयगिरि दर्शनज्ञानविषयक सहवाद सिद्धसेनका है और अभेदवाद वृद्धाचार्यका है ऐसा कहते है, तथापि सन्मतिके टीकाकार अभयदेव तो सिद्धसेनको ही अभेदवादके पुरस्कर्ता कहते ह । इस बारेमे हरिभद्र और मलयगिरिको अपेक्षा अभयदेवका ही कथन । अधिक उपयुक्त है, ऐसा मानने के तीन कारण है . (१) क्रमवाद और सहवाद । निरसनके वाद अन्तत अभेदवादका समर्थन, (२) अभयदेव समितिके टीकाकार , होनेसे उन्हे मिली हुई प्राचीन टीकाओको विरासतके कारण तथा उनके द्वारा किये गये उसके गहरे अभ्यासके कारण उन्हीमे हरिभद्रकी अपेक्षा विशेष ययार्थताका सम्भव, और ( ३) अभेदवारके पुरस्कर्ताक रूपमे सिद्धसेनको ही जनपरम्परामे प्रसिद्धि और यशोविजयजी जैसोको इस विषयमे ऐकमत्य । सिद्धसेन अभेदवादके प्रस्थापक है और उन्होने इसके लिए ही सन्मतिका दूसरा का रोका है, फिर भी जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणने अपने भाष्यमे और विशेषणवती अन्यमे अभेदवादका खण्डन तया आगमसिद्ध क्रमवादको स्थापना करते समय अभेदवादियोकी जो-जो दलीले उद्धृत की है और उनके जिन-जिन मतभेदोका वर्णन किया है, उन सबका समय भावसे विचार करने पर ऐसा तो लगता ही है कि सिद्धसेनके पूर्ववर्ती नहीं, तो अन्तत समसमयवर्ती और उत्तरवर्ती कई आचार्य अमेदवादको समर्थन करनेवाले भी हुए होगे और सन्मतिके दूसरे । काण्डके अतिरिक्त अभेदवादका समर्थन करनेवाले दूसरे प्रकरण या टोकाएं - सिद्धसेनकी अथवा दूसरे आचार्योकी होनी चाहिए । चाहे जो हो, इस समय हमारे सामने तो सिद्धसेनके इस विशिष्ट वादको चर्चा करनेवाला प्रस्तुत दूसरा काण्ड ही है। દૂસરે ધિક્કો વ્યાયામ ટીક્કારને પહત્રી નર પદ્માવી નધિા સિવ વાવ સમી માયામો માત્ર સ્પષ્ટીકરણ કરવાથી ક્ષપ્ત વ્યાહ્ય લિી है। उसमें कोई खास वाद समाविष्ट नहीं किये है। पन्द्रहवी गाथाको व्याख्यामे
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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