SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवकंडय' के नामसे निदा किया गया है, परन्तु तीसरे विभाग अन्तमें न तो सामान्य कोण्ड शब्द ही है और न विशेषणयुक्त काण्ड शब्द । पहले विभागका 'नयकड' नाम यथार्थ है, क्योकि उसमे नयको ही चर्चा आती है; परन्तु दूसरे काण्डका 'जीवकडय' नाम ठीक नहीं है, क्योकि उस विभागमे जीवके पूर्ण स्वरूपको चर्चा नहीं है, किन्तु उसमे आदिसे अन्ततक मख्य चर्चा शानकी ही है। इससे उस काण्डको ज्ञानकाण्ड' या उपयोगकाण्ड कहना ही समुचित होगा। तीसरे विभाग अन्तम तो कोई विशेष नाम नही है । इसपरसे ऐसा प्रतीत होता है कि अन्धकारने तो मात्र तीनो विभागोको काण्ड ही कहा होगा और किसीने वादों विषयकी दृष्टि से 'नयकड' जैसे विशेष नाम लगा दिये होगे और ऐसा करनेमे દૂસરે રોષ્ઠો “નીવડય' કહનેવી વયથાર્થતા એ થી ફોની સંયવા તો વલોવી कुछ भूल हो गयी होगी। विशेष नाम जोडनेवालेने तीसरे काण्डको विशेष नाम दिया होगा या नहीं और यदि दिया होगा, तो फिर वादको प्रतिलिपियोमसे वह कसे छूट गया होगा, यह कहना कठिन है। इसका विशेष निर्णय करने के लिए तो मूलकी अनेक प्राचीन एव अर्वाचीन प्रतियां प्राप्त करनी चाहिए । इन तीनो विभागोको विषयानुरूप नयमीमासा, ज्ञानमीमासा और शेयमीमासा ऐसे जो नाम मुद्रित भागोमें छपे है, वे हमने ही सरलता एव स्पष्टताको दृष्टि से दिये है। ‘काण्ड' संज्ञा अथर्ववेद, शतपय ब्राह्मण आदि प्राचीन वैदिक अन्योमे तथा रामायण जैसे प्राचीन काव्यमें प्रसिद्ध है ही। काण्ड २०दको प्रयोग अरण्यवासका परिणाम है। प्राचीन जैन वामयमें तो कहीपर भी काण्ड नामका प्रयोग उपलव्य नहीं होता । जहाँतक हम जानते है वहाँतक जैन अन्योमे काण्ड नामका प्रयोग सबसे पहले समितिमें ही हुआ है । आचार्य हेमचन्द्रने अपने कोशमे काण्डके नामसे विभाग किये है, परन्तु वह तो वादकी बात है और वह बहुधा अमर, विकाण्ड आदि कोशग्रन्थोका ही अनुकरण है। काण्डका प्राकृत 'कड' या कडय' है। इससे कुछ मिलता-जुलता और नजदीकका प्राकृत शब्द गाडिका' है। यह २००८ दृष्टिवाद नामक लुप्त वारहवे महान जैन के भागोके लिए प्रयुक्त होता था, ऐसा उल्लेख मिलता है। डिकाका संस्कृत रूप कडिका हो सकता है और 'कण्डिका' शब्द उपनिषदोके अमुक मत्रभागके लिए प्रयुक्त देखा भी जाता है। अत यह स्पष्ट है कि दृष्टिवादके खास भागोके लिए प्रसिद्ध गाडिका शब्द कडिकाकी प्रतिकृति है, काण्डकी नही। ___समय सन्मति अन्यको 'सुत्त' कहा जाता है। प्रत्येक गाथाको भी सुत' कहा है। 'सुत्त' शब्द प्राकृत और पालि भाषामे प्रसिद्ध है। प्रत्येक जन आगम इस समय एक अखण्ड 'सुत' कहा जाता है (जैसे कि आयरिंगसुत, सूयगडा
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy