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________________ - ७२. ] ३६३ समुपचीयमान महामोह मलमलीमसमानसतया नित्यमज्ञानिनो भवन्ति ते खलु समयस्थिता अप्यनासादितपरमार्थ श्रामण्यतया श्रमणाभासाः सन्तोऽनन्तकर्मफलोपभोगप्राग्भारभयंकरमनन्तकालमनन्तभवान्तपरावर्तैरनवस्थितवृत्तयः संसारतत्त्वमेवावबुध्यताम् ॥ ७१ ॥ अथ मोक्षतत्त्वमुद्घाटयति अजधाचार विजुत्तो जघत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा | अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो ॥ ७२ ॥ अयथाचारवियुक्तो यथार्थपदनिश्चितः प्रशान्तात्मा । अफले चिरं न जीवति इह स संपूर्ण श्रामण्यः ॥ ७२ ॥ यस्त्रिलोकचूलिकायमाननिर्मलविवेकदीपिकालोकशालितया यथावस्थितपदार्थनिश्चयनिरूपात्यन्तफलसमृद्धम्। पुनरपि कथंभूतं । अतो वर्तमानकालात्परं भाविनमिति । अयमत्रार्थः— इत्थंभूतसंसारपरिभ्रमणपरिणतपुरुषा एवाभेदेन संसारस्वरूपं ज्ञातव्यमिति ॥ ७१ ॥ अथ मोक्षस्वरूपं प्रकाशयति- अजधाचारविजुत्तो निश्चयव्यवहारपञ्चाचारभावना परिणतत्वादयथाचारवियुक्तः विपरीतांचाररहित इत्यर्थः । जधत्थपदणिच्छिदो सहजानन्दैकस्वभावनिजपर. मात्मादिपदार्थपरिज्ञानसहितत्वाद्यथार्थपद निश्चितः पसंतप्पा विशिष्टपरमोपशमभावपरिणतनिजात्मद्रव्यभावनासहितत्वात्प्रशान्तात्मा जो यः कर्ता सो संपुष्णसामण्णो स संपूर्णश्रामण्यः 6 m प्रवचनसारः - अनंतकालपर्यत [भ्रमन्ति ] भटकते हैं । भावार्थ - ये अज्ञानी मुनि मिथ्याबुद्धिसे पदाका श्रद्धान नहीं करते हैं, अन्यकी अन्य कल्पना करते हैं, और सदा महामोह मलकर चित्तकी मलिनतासे अविवेकी हैं, यद्यपि द्रव्यलिंगको धारण कर रहे हैं, तो भी परमार्थ मुनिपनहीं प्राप्त हुए हैं, जो मुनिके समान मालूम पड़ते हैं, वे अनंतकालतक अनंतपरावर्तन कर भयानक कर्म-फलको भोगते हुए भटकते हैं । इसलिये ऐसे श्रमणाभास मुनिको संसारतत्त्व जानना चाहिये, दूसरा कोई संसार नहीं है, जो जीव मिथ्याबुद्धि लिये हुए हैं, वे ही जीव संसार हैं॥७१॥ आगे मोक्षतत्त्वको प्रगट करते हैं - [ अयथाचार वियुक्तः ] जो पुरुष मिथ्या आचरण से रहित हैं, अर्थात् यथावत् स्वरूपाचरणमें प्रवर्तते हैं, [ यथार्थपदनिश्चितः ] जैसा कुछ पदार्थोंका स्वरूप है, वैसा ही जिसने निश्चल श्रद्धान कर लिया है, [ प्रशान्तात्मा] और जो राग द्वेपसे रहित है, ऐसा [सः] वह पुरुष [ संपूर्णश्रामण्यः ] सम्पूर्ण मुनिपदवी सहित हुआ [ इह ] इस [ अफले ] फल रहित संसार में [ चिरं ] बहुत कालतक [ न जीवति ] प्राणोंको नहीं धारण करते हैं, थोड़े कालतक ही रहते हैं । भावार्थ — त्रिलोकका चूडामणिरत्न समान निर्मल विवेकरूपी दीपक के प्रकाशसे जिस महामुनिने यथावत् पदार्थोंका निश्चय किया है, और एक अपने ही स्वरूपको मुख्यपनेसे आचरता है, . विपरीत आचरणसे रहित हुआ, सदाकाल ज्ञानी है, ऐसा परिपूर्ण
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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