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________________ } २८. ] ३०९ बलीयस्त्वात् इति कृत्वा ये तं स्वयमनशनस्वभावं भावयन्ति श्रमणाः । तत्प्रतिषिद्धये चैषणादोषशून्यमन्यद्भैक्षं चरन्ति । ते किलाहरन्तो ऽप्यनाहरन्त इति युक्ताहारत्वेन स्वभाव - परभावप्रत्ययप्रतिबन्धाभावात्साक्षादनाहारा एव भवन्ति । एवं स्वयमविहारस्वभावत्वात्समितिशुद्धविहारत्वाच्च युक्तविहारः साक्षादविहार एव स्यात् इत्यनुक्तमपि गम्येतेति ॥ २७ ॥ अथ कुतो युक्ताहारत्वं सिद्ध्यतीत्युपदिशति केवलदेहो समणो देहे वि ममत्तर हिदपरिकम्मो । S प्रवचनसारः आजुत्तो तं तवसा अणिमूहिय अप्पणो सत्तिं ॥ २८ ॥ केवलदेहः श्रमणो देहेऽपि ममत्वरहितपरिकर्मा | आयुक्तवांस्तं तपसा अनिगूह्यात्मनः शक्तिम् ॥ २८ ॥ यतो हि श्रमणः श्रामण्यपर्याय सहकारिकारणत्वेन केवल देहमात्रस्योपधेः प्रसह्याप्रतिअध अथ अहो ते समणा अणाहारा ते अनशनादिगुणविशिष्टाः श्रमणा आहारग्रहणेऽप्यनाहारा भवन्ति । तथैव च निःक्रियपरमात्मानं ये भावयन्ति पञ्चसमितिसहिता विहरन्ति च विहारा भवन्तीत्यर्थः ॥ २७ ॥ अथ तदेवानाहारकत्वं प्रकारान्तरेण प्राह - केवलदेहो केवलदेहोऽन्यपरिग्रहरहितो भवति । स कः कर्ता । समणो निन्दाप्रशंसादिसमचित्तः श्रमणः । तर्हि किं देहे ममत्वं भविष्यति । नैवं । देहे वि ममत्तर हिदपरिकम्मो देहेऽपि ममत्वरहितपरिकर्मा “ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिं उवद्विदो । आलंबणं च मे आदा अवसे साइं [ अनाहाराः ] आहार ग्रहणसे रहित ही हैं, ऐसा मानना चाहिये । भावार्थ — जो महामुनीश्वर हैं, उन्होंने भी अपना स्वरूप सदाकाल समस्तं परद्रव्यरूप पुगलके ग्रहणसे रहित जान लिया है, इसलिये भोजन करनेकी तृष्णासे रहित हैं, और यही उनके अंतरङ्ग अनशन नामा तप है । ऐसे निराहार आत्मस्वभावके भावनेवाले मुनि जो शरीरकी स्थिति निमित्त आहार भी लेते हैं, तो सब दोपोंसे रहित शुद्ध अन्नको लेते हैं, इसलिये वे मुनि आहार ग्रहण करते हुए भी नहीं लेनेवाले ही माने जाते हैं, क्योंकि उन्होंने एक तो अपना स्वभाव निराहार समझ रक्खा है, और दूसरे जो आहार लेते हैं, तो रागी होकर नहीं लेते, इसलिये बंध नहीं होता । इस कारण निराहार ही मानने और इसीतरह चलनादि क्रियारूप विहार- कर्मको भी निजस्वभाव नहीं मानते हैं, और जो विहार- कर्म करते भी हैं, तो ईर्यासमितिकी शुद्धिसे योग्य विहार करते हैं । इसलिये विहार - क्रिया करनेपर भी अविहारी मानना चाहिये ॥ २७ ॥ आगे योग्य आहार किससे होता है, यह कहते हैं - [ श्रमणः ] मुनि [ केवलदेह : ] एक शरीरमात्र परिग्रहवाला होता हुआ और [ देहेऽपि ] देहके होनेपर भी उसमें [ न मम ] यह मेरा नहीं है, [ इति ] इस प्रकार [ ममत्वरहितपरिकर्मा ] देहसंबन्धी अयोग्य आहार
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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