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________________ २९५ २०.]". . -प्रवचनसारःभगवन्तोऽर्हन्तः परमाः श्रमणाः स्वयमेव सर्वमेवोपधिं प्रतिषिद्धवन्तः । अत एव चापरैरप्यन्तरङ्गच्छेदवत्तदनान्तरीयकत्वात्प्रागेव सर्व एवोपधिः प्रतिषेध्यः । “वक्तव्यमेव किल यत्तदशेषमुक्तमेतावतैव यदि चेतयतेऽत्र कोऽपि । व्यामोहजालमतिद्धस्तरमेव नूनं निश्चेतनस्य वचसामतिविस्तरेऽपि" ॥ १९॥ • अथान्तरङ्गच्छेदप्रतिषेध एवायमुपधिप्रतिषेध इत्युपदिशति ण हि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविस्सुद्धी। अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिओ ॥२०॥ न हि निरपेक्षस्त्यागो न भवति भिक्षोराशयविशुद्धिः । अविशुद्धस्य च चित्ते कथं नु कर्मक्षयो विहितः ॥ २०॥ शेषः सर्वोऽपि परिग्रहो मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च त्यजनीय इति । अत्रेदमुक्तं भवतिशुद्धचैतन्यरूपनिश्चयप्राणे रागादिपरिणामरूपनिश्चयहिंसया पातिते सति नियमेन बन्धो भवति। परजीवघाते पुनर्भवति वा न भवतीति नियमो नास्ति, परद्रव्ये ममत्वरूपमूर्छापरिग्रहेण तु नियमेन भवत्येवेति ॥ १९ ॥ एवं भावहिंसाव्याख्यानमुख्यत्वेन पञ्चमस्थले गाथाषटुं गतम् । इति पूर्वोक्तक्रमेण 'एवं पणमिय सिद्धे' इत्यायेकविंशतिगाथाभिः स्थलपञ्चकेनोत्सर्गचारित्रव्याख्याननामा प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः । अतःपरं चारित्रस्य देशकालापेक्षयापहतसंयमऔर न भी होवे, परन्तु यदि मुनि परिग्रहका ग्रहण करें, तो बन्ध होवे भी न भी होवे, ऐसा नहीं है। किन्तु निश्चयसे बन्ध होता है। क्योंकि परिग्रहके ग्रहणसे सर्वथा अशुद्धोपयोग होता है। अतः अन्तरङ्गसंयमका घात होनेसे बन्ध निश्चित है । अन्तरङ्ग अभिलाषाके विना परिग्रहका ग्रहण कदाचित् नहीं होता, अन्तरङ्गभावके विना शरीरकी क्रियासे यत्न करते हुए परजीवका घात हो भी जाय, परन्तु परिग्रहका ग्रहण अन्तरङ्गभाव विना शरीरकी चेष्टासे कदाचित् नहीं होता। इसलिये ऐसा जानकर ही भगवान् वीतरागदेव परिग्रहका सर्वथा त्याग करते हैं, और दूसरे मुनियोंको भी यही चाहिये, कि वे भी समस्त परिग्रहका त्याग करें। शुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्गसंयमका घात करो, या परिग्रहका ग्रहण करो, ये दोनों समान हैं । संयमके घातक दोनों हैं । इसलिये मुनिको चाहिये, कि जिस प्रकार अन्तरङ्गसंयमके घातका निषेध करे, उसी प्रकार परिग्रहको सबसे पहले छोड़ दे। बहुत कहाँतक कहें, जो समझनेवाला है, वह थोड़े ही में समझ जाता है, और जो समझनेवाला न होवे, तो उसको जितना वचनका विस्तार दिखाया जाय, वह सव ही मोहका समूह अपार वागजल होता है, अर्थात् किसी प्रकार भी वह समझता नहीं ॥ १९॥ आगे अन्तरङ्गभावसे जो वाह्यपरिग्रहका त्याग है, वह अन्तरङ्ग शुद्धोपयोगरूप संयमके घातका निषेधक नहीं है, ऐसा उपदेश करते हैं- यदि [निरपेक्षः] परिग्रहकी अपेक्षासे सर्वथा रहित [त्यागः] परिग्रहका त्याग [न] न होय तो [हि]
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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