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________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला - २९० अथ को नाम छेद इत्युपदिशतिअपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु । काले हिंसा सा संतत्तिय त्ति मदा ॥ १६ ॥ अप्रय़ता वा चर्या शयनासनस्थानचङ्क्रमणादिषु । श्रमणस्य सर्वकाले हिंसा सा संततेति मता ॥ १६ ॥ समणस्स [ अ० ३, गा० १६ - अशुद्धोपयोगो हि छेदः, शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात् तस्य हिंसनात् स एव च हिंसा । अतः श्रमणस्याशुद्धोपयोगाविनाभाविनी शयनासनस्थानचङ्क्रमणाद्विष्वप्रयता या चर्यां सा खलु तस्य सर्वकालमेव संतानवाहिनी छेदानर्थान्तरभूता हिंसैव ॥१६॥ ममत्वं न कर्तव्यमिति ॥ १५ ॥ एवं संक्षेपेणाचाराराधनादिकथिततपोधनविहारव्याख्यानमुख्यत्वेन चतुर्थस्थले गाथात्रयं गतम् । अथ शुद्धोपयोगभावनाप्रतिबन्धकच्छेदं कथयति-मदा मता सम्मतो । का। हिंसा शुद्धोपयोगलक्षण श्रामण्यछेदकारणभूता हिंसा । कथंभूता । संतत्तिय ति संतता निरन्तरेति। का हिंसा मता । चरिया चर्या चेष्टा यदि चेत् । कथंभूता । अपयत्ता वा अप्रयत्ना वा निःकषायस्वसंवित्तिरूपप्रयत्नरहिता संक्केशसहितेत्यर्थः । केषु विषयेषु । सयणासणठाणचकमादीसु शयनासनस्थान चङ्क्रमणखाध्यायतपश्चरणादिषु । कस्य । समणस्स श्रमणस्य तपोधनस्य । क्व । सबकाले सर्वकाले । अयमत्रार्थः - बाह्यव्यापाररूपाः शत्रवस्तावत्पूर्वमेव भी सम्बन्ध करनेका निषेध है || १५ || आंगे शुद्धोपयोगरूप यतित्वका मुनिके कौनसा भंग है, इस बातको बताते हैं - [ वा ] अथवा [ श्रमणस्य ] मुनिके [ शयनासंनस्थानचङ्क्रमणादिषु ] सोने, बैठने, खड़े होने, चलने आदि अनेक क्रियाओं में [या ] जो [ अप्रयता ] यत्नं रहित [ चर्या ] प्रवृत्ति होती है, [ सा ] वह [ सर्वकाले ] हमेशः [ संतता ] अखण्डित [ हिंसा ] चैतन्यं प्राणोंका विनाश करनेवाली हिंसा है, [ इति ] इस प्रकार [मता ] वीतराग सर्वज्ञदेवने कही है । भावार्थ- संयमका घात ही अशुद्ध उपयोग है, क्योंकि मुनिपद शुद्धोपयोगरूपं है । अशुद्धोपयोगसे मुनिपदका नाश होता है. और अशुद्धोपयोगका होना यही हिंसा है, सबसे बड़ी हिंसा ज्ञानदर्शनरूप शुद्धोपयोगके घातसे ही होती है। वह अशुद्धोपयोग मुनिके निरंतर उस समय ही समझना चाहिये, जिस समय मुनि सोना, बैठना, चलना, इत्यादि क्रियाओं में यत्नपूर्वक प्रवृत्ति नहीं करते । यत्नके बिना मुनिकी क्रिया अट्ठाईस मूलगुणकी घातिनी है । यत्न उस ही समय में नहीं होता, जिस समय में उपयोगकी चंचलता होती है, यदि उपयोगकी चंचलता न हो, तो यत्न अवश्य हो । इसलिये उपयोगकी जो निश्चलता है, वही शुद्धोपयोग है । यत्न सहित क्रियासे भंग नहीं होता, और यत्न रहित क्रियासे भंग होता है, इसलिये यह बात सिद्ध हुई, कि मुनिकी जो यत्न रहित .
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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