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________________ ४.1: . : . - प्रवचनसारः - २७७ प्रणतो भवति । एवमियं ते शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसिद्धिरिति तेन प्रार्थितार्थेन संयुज्यमानोऽनुगृहीतो भवति ॥ ३॥ . अथातोऽपि कीदृशो भवतीत्युपदिशति णाहं होमि परेसिंण मे परे णस्थि मज्झमिह किंचि। इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जधजादरूवधरो॥४॥ .. नाहं भवामि परेषां न मे परे नास्ति ममेह किंचित् । .. इति निश्चितो जितेन्द्रियः यातो यथाजातरूपधरः ॥४॥ . ततोऽपि श्रामण्यार्थी यथाजातरूपधरो भवति । तथाहि-अहं तावन्न किंचिदपि परेषां भवामि परेऽपि न किंचिदपि मम भवन्ति, सर्वद्रव्याणां परैः सह तत्त्वतः समस्तसंबन्धशून्यत्वात् । तदिह षड्द्रव्यात्मके लोके न मम किंचिदप्यात्मनोऽन्यदस्तीति निश्चितन केवलं प्रणतो भवति, तेनाचार्येणानुगृहीतः खीकृतश्च भवति । हे भव्य, निस्सारसंसारे दुर्लभबोधि प्राप्य निजशुद्धात्मभावनारूपया निश्चयचतुर्विधाराधनया मनुष्यजन्म सफलं कुर्वित्यनेन प्रकारेणानुगृहीतो भवतीत्यर्थः ॥ ३ ॥ अथ गुरुणा स्वीकृतः सन्नीदृशो भवतीत्युपदिशतिणाहं होमि परेसिं नाहं भवामि परेषाम् । निजशुद्धात्मनः सकाशात्परेपा . भिन्नद्रव्याणां संबन्धी न भवाम्यहम् । ण मे.परे न मे संबन्धीनि परद्रव्याणि, णत्थि मज्झमिह किंचि नास्ति ममेह किंचिदपि परद्रव्यं मम नास्ति । इदि णिच्छिदो इति निश्चितमतिर्जातः । जिदिंदो जादो इन्द्रियमनोजनितविकल्पजालरहितानन्तज्ञानादिगुणखरूपनिजपरमात्मद्रव्याद्विपरीतेन्द्रियनोइन्द्रियाणां जयेन जितेन्द्रियश्च संजातः सन् जधजादरूवधरो जोड़कर विनती करता है, कि प्रभो; मैं संसारसे भयभीत हुआ हूँ, सो मुझको शुद्धास्मतत्त्वकी सिद्धि होनेके लिये दीक्षा दो । तब आचार्य कहते हैं, कि तुझको शुद्धात्मतत्त्वकी सिद्धि (प्राप्ति) करनेवाली यह भगवती-दीक्षा है। ऐसा कहकर वह .मुमुक्षु आचार्यसे कृपायुक्त किया जाता है ॥३॥ आगे फिर वह कैसा होता है, यह कहते हैं[अहं ] मैं [परेषां] शुद्ध चिन्मात्रसे अन्य जो परद्रव्य हैं, उनका [न. भवामि ] नहीं हूँ, और [न मे] न मेरे [परे] परद्रव्य हैं, इसलिये [इह] इस लोकमें [मम] मेरा [किंचित् ] कुछ भी [ नास्ति ] नहीं है [इति] इस तरह [निश्चितः] निश्चय करता हुआ [जितेन्द्रियः] पाँच इंद्रियोंका जीतनेवाला [यथाजातरूपधरः जातः] आत्माका जैसा कुछ स्वयंसिद्ध स्वरूप है, उसको धारण करता है। भावार्थ-जो पुरुप मुनि होना चाहता है, उसके प्रथम तो ऐसे भाव होते हैं, कि न मैं परद्रव्यका हूँ, और न मेरे परद्रव्य है, क्योंकि कोई द्रव्य अपना स्वरूप छोड़कर किसीसे मिलता नहीं है, सव जुदे जुदे हैं। इसलिये संसारमें जो नोकर्म, द्रव्यकर्म, भावकर्मरूप समस्त परभाव हैं, उनमें मेरा स्वरूप कुछ भी नहीं है। मैं सवसे भिन्न अविनाशी टंकोत्कीर्ण
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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