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________________ [अ० ३, गा० १ -- रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - चारित्राधिकारः॥३॥ । अथ परेषां चरणानुयोगसूचिका चूलिका । तत्र "द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धिः द्रव्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धौ । बुद्धति कर्माविरताः परेऽपि द्रव्याविरुद्धं चरणं चरन्तु" इति चरणाचरणे परान् प्रयोजयति-'एस सुरासुर' इत्यादि 'सेसे' इत्यादि 'ते ते' इत्यादि । एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे । पडिवजदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं ॥१॥ ___ कार्य प्रत्यत्रैव ग्रन्थः समाप्त इति ज्ञातव्यम् । कस्मादिति चेत् । 'उवसंपयामि सम्म' इति प्रतिज्ञासमाप्तेः । अतःपरं यथाक्रमेण सप्ताधिकनवतिगाथापर्यन्तं चूलिकारूपेण चारित्राधिकारव्याख्यानं प्रारभ्यते । तत्र तावदुत्सर्गरूपेण चारित्रस्य संक्षेपव्याख्यानम् । तदनन्तरमपवादरूपेण तस्यैव चारित्रस्य विस्तरव्याख्यानम् । ततश्च श्रामण्यापरनाममोक्षमार्गव्याख्यानम् । तदनन्तरं शुभोपयोगव्याख्यानमित्यन्तराधिकारचतुष्टयं भवति । तत्रापि प्रथमान्तराधिकारे पञ्चस्थलानि ‘एवं पणमिय सिद्धे' इत्यादि गाथासप्तकेन दीक्षाभिमुखपुरुषस्य दीक्षाविधानकथनमुख्यतया प्रथमस्थलम् । अतःपरं 'वदसमिदिदिय' इत्यादिमूलगुणकथनरूपेण द्वितीयस्थले गाथादयम् । तदनन्तरं गुरुव्यवस्थाज्ञापनार्थं 'लिंगग्गहणे' इत्यादि एका गाथा । तथैव प्रायश्चित्तकथन- . मुख्यतया 'पयदम्हि' इत्यादि गाथाद्वयमिति समुदायेन तृतीयस्थले गाथात्रयम् । अथाधारादिशास्त्रकथितक्रमेण तपोधनस्य संक्षेपसमाचारकथनार्थ 'अधिवासे व' इत्यादि चतुर्थस्थले __ इसके बाद चारित्रका अधिकार प्रारंभ करते हैं जो जीव मोक्षाभिलापी हैं, वे द्रव्यके स्वरूपको भी यथार्थ जानते हैं, और चारित्रके स्वरूपको भी यथार्थ जानते हैं, क्योंकि द्रव्यके ज्ञानके अनुसार चारित्र होता है, और चारित्रके अनुसार द्रव्यज्ञान होता है। इस कारण ये दोनों एकत्र रहते हैं। इन दोनोंमें जो एक न होवे, तो मोक्षमार्ग भी न हो, इसलिये इन दोनोंका जानना योग्य है। इसी कारण चारित्रका स्वरूप कहते हैं। आगे चारित्रके आचरणमें अन्य जीवोंको युक्त करते हैं। जो द्रव्यका ज्ञान होवे, तो चारित्रके आचरणकी अच्छी तरह सिद्धि होने, और जो चारित्र हो, तो द्रव्यका ज्ञान 'सफल होवे । इन दोनोंकी परस्पर सिद्धि है। इस कारण जो जीव क्रियामें प्रवृत्त होते है, वे आत्मद्रव्यके जाननेसे अविरोधी क्रियाका आचरण करो, अहंबुद्धि रहित निरभि. लापी होके आचरो। इसी लिये आचार्य अन्य जीवोंके हितके निमित्त यत्याचार कहते है । पूर्व ही ग्रंथारंभके आदिमें "एस सुरासुर" इत्यादि गाधाओंसे पंचपरमेष्ठियोंको नमस्कार किया था, उन्हीं गाथाओंसे इस यत्याचारके आरंभमें भी आचार्य नमस्कार
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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