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________________ २६८ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला- [अ० २, गा० १०८स्यानिवार्यत्वेनाशक्यविवेचनत्वाद पात्तवैश्वरूप्यमपि सहजानन्तशक्तिज्ञायकस्वभावेनैक्यरूप्यमनुज्झन्तमासंसारमनयैव स्थित्या स्थितं मोहेनान्यथाध्यवस्यमानं शुद्धात्मानमेष मोहमुत्खाय यथास्थितमेवातिनिःप्रकम्पः संप्रतिपद्ये । स्वयमेव भवतु चास्यैवं दर्शनविशुद्धिमूलया सम्यग्ज्ञानोपयुक्ततयात्यन्तमव्यावाधरतत्वात्साधोरपि साक्षात्सिद्धभूतस्य खात्मनस्तथाभूतानां परमात्मनां च नित्यमेव तदेकपरायणतत्त्वलक्षणो भावनमस्कारः ॥ १०८ ॥ खभावः । तथाभूतस्य सतो मम नु केवलं स्वखाम्यादयः परद्रव्यसंबन्धा न सन्ति । निश्चयेन ज्ञेयज्ञायकसंबन्धो नास्ति । ततः कारणात्समस्तपरद्रव्यममत्वरहितो भूत्वा परमसाम्यलक्षणे निजशुद्धात्मनि तिष्ठामीति । किंच 'उवसंपयामि सम्म' इत्यादिखकीयप्रतिज्ञा निर्वाहयन्वयमपि मोक्षमार्गपरिणति स्वीकरोत्येवं यदुक्तं गाथापातनिका प्रारम्भे तेन किमुक्तं भवति-ये तां प्रतिज्ञां गृहीत्वा सिद्धिं गतास्तैरेव सा प्रतिज्ञा वस्तुवृत्त्यां समाप्तिं नीता । कुन्दकुन्दाचार्यदेवैः पुननिदर्शनाघिकारद्वयरूपग्रन्थसमाप्तिरूपेण समाप्तिं नीता । शिवकुमारमहाराजेन तु तद्रन्थश्रवणेन च । कस्मादिति चेत् । ये मोक्षं गतास्तेषां सा प्रतिज्ञा परिपूर्णा जाता । न चैतेषां कस्मात् । चरंमंदेहत्वाभावादिति ॥ १०८ ॥ एवं ज्ञानदर्शनाधिकारसमाप्तिरूपेण चतुर्थस्थले गाथाद्वयं गतम् । एवं निजशुद्धात्मभावनारूपमोक्षमार्गेण ये सिद्धिं गता ये च तदाराधकास्तेषां दर्शनाधिकारापेक्षयावसानमङ्गलार्थ ग्रन्थापेक्षया मध्यमङ्गलार्थ च तत्पदाभिलाषी भूत्वा नमस्कारं करोतिशुद्धात्मामें प्रवर्तता है। उस प्रवृत्तिकी रीति इस तरह है-मैं निजस्वभावसे ज्ञायक (जाननेवाला) हूँ, इस कारण समस्त परवस्तुओंके साथ मेरा ज्ञेयज्ञायक सम्बध है, लेकिन वे पदार्थ मेरे हैं, मैं उनका स्वामी हूँ, ऐसा मेरा सम्बंध नहीं है। इसलिये मेरे किसी परवस्तुमें ममत्वभाव नहीं है, सबमें ममताभाव रहित हूँ, और जो मैं एक स्वभाव हूँ, सो मेरा समस्त ज्ञेयपदार्थोंका जानना स्वभाव है, इस कारण वे ज्ञेय मुझमें ऐसे मालूम होते हैं, कि मानों प्रतिमाकी तरह गढ़ दिये हैं, वा लिखे हैं, या मेरेमें समा गये (मिल गये) हैं, या कीलित हैं, या डूब गये हैं, वा पलट रहे हैं, अथवा प्रतिबिंबित हैं, इस तरह मेरे ज्ञेयज्ञायक संबंध है, अन्य कोई भी संबंध नहीं है । इसलिये अव मैं मोहको दूर कर अपने यथास्थित (जैसा था वैसा) स्वरूपको निश्चल होकर, आपसे ही अंगीकार करता हूँ। मेरे स्वरूपमें त्रिकालसम्बंधी अनेक प्रकार अति गंभीर सब ही द्रव्य-पर्याय एक ही समयमें प्रत्यक्ष हैं, और मेरा यह स्वरूप ज्ञेयज्ञायक सम्बंधसे यद्यपि समस्त लोकके स्वरूप हुआ है, तो भी स्वाभाविक अनंत ज्ञायकशक्तिसे अपने एक स्वरूपको नहीं छोड़ता, और यह मेरा स्वरूप अनादि कालसे इसी प्रकारका था, परंतु मोहके वशीभूत होके अन्यका अन्य (दूसरा) जाना, इसी कारण मैं अज्ञानी हुआ। अब मैंने जैसेका तैसा (यथार्थ) जान लिया, इस कारण अप्रमादी होके स्वरूपको स्वीकार करता हूँ, और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानसे अखडित सुखमें तिष्ठे हुए साक्षात् सिद्धस्वरूप भगवान, अपनी जो आत्मा है, उसको हमारा भावनमस्कार होवे। तथा जो अन्य जीव उस परमात्मभावको प्राप्त हुए हैं, उनको भी हमारा बहुत भक्तिसे भावनमस्कार होवे ॥१०८॥
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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