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________________ । ९७.] .. -प्रवचनसार: २५३ एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयेन निर्दिष्टः । अर्हद्भिर्यतीनां व्यवहारोऽन्यथा भणितः ॥ ९७ ॥ रागपरिणाम एवात्मनः कर्म, स एव पुण्यपापद्वैतम् । रागादिपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपादाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनयः। यस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मनः कर्म स एव पुण्यपापद्वैतं पुद्गलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपादाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारनयः। उभावप्येती स्तः, शुद्धाशुद्धत्वेनोभयथा द्रव्यस्य कर्तृभूतैः । अरहंतेहिं अर्हद्भिः निर्दोषिपरमात्मभिः । केषाम् । जदीणं जितेन्द्रियत्वेन शुद्धात्मस्वरूपे यत्नपराणां गणधरदेवादियतीनाम् । ववहारो द्रव्यकर्मरूपव्यवहारबन्धः अण्णहा भणिदो निश्चयनयापेक्षयान्यथा व्यवहारनयेनेति भणितः । किंच रागादीनेवात्मा करोति तानेव भुते चेति निश्चयनयलक्षणमिदम् । अयं तु निश्चयनयो द्रव्यकर्मबन्धप्रतिपादकासद्भूतव्यवहारनयापेक्षया शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको विवक्षितनिश्चयनयस्तथैवाशुद्धनिश्चयश्च भण्यते । द्रव्यकर्माण्यात्मा करोति भुङ्क्ते चेत्यशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकासद्भूतव्यवहारनयो भण्यते । इदं नयद्वयं तावदस्ति । किंवत्र निश्चयनय उपादेयः न चासद्भूतव्यवहारः । ननु रागादीनात्मा करोति भुते चेत्येवं लक्षणो निश्चयनयो व्याख्यातः स कथमुपादेयो भवति । परिहारमाह-रागादीनेवात्मा करोति न च द्रव्यकर्मरागादय एव बन्धकारणमिति यदा जानाति जीवस्तदा रागद्वेपादिविकल्पपूर्वोक्त प्रकार यह रागपरिणाम ही [निश्चयेन] निश्चयसे बंध है, ऐसा [बन्धसमासः] बंधका संक्षेप कथन (सारांश) [यतीनां] मुनीश्वरोंको [ निर्दिष्टः ] दिखलाया है। [अन्यथा] इस निश्चयवंधसे जुदा जो जीवोंके एक क्षेत्रावगाहरूप. द्रव्यकर्मबंध है, वह [व्यवहारः] उपचारसे बंध [भणितः] भगवंतने कहा है। भावार्थ-जो पुण्य पापस्वरूप आत्माका राग परिणाम है, वह उसका कर्म है, उसीका आत्मा कर्ता है, उस राग परिणामको अपने ही परिणमनसे ग्रहण करता है, और अपने ही से छोड़ता है। इस कारण यह शुद्ध द्रव्यका कहनेवाला निश्चयनय जानना । तथा जो द्रव्यकर्मरूप पुद्गलपरिणाम आत्माका कर्म है, उसका वह कर्ता है, और ग्रहण करनेवाला तथा छोड़नेवाला है, सो यह अशुद्ध द्रव्यका कहनेवाला व्यवहारनय है । इस प्रकार निश्चय व्यवहार नयसे शुद्धाशुद्धरूप बंधका स्वरूप दो प्रकार दिखलाया है। परंतु इतना विशेष है, कि निश्चयनय ग्रहण करने योग्य है, क्योंकि वह केवल द्रव्यके परिणामको दिखलाता है, और साध्य रूप शुद्ध द्रव्यके शुद्ध स्वरूपको दिखलाता है । तथा व्यवहारनय परद्रव्यके परिणामको आत्मपरिणाम दिखलानेसे द्रव्यको अशुद्ध दिखलाता है, इस कारण ग्रहण योग्य नहीं है। यहाँपर कोई प्रश्न करे, कि तुमने रागपरिणामको निश्चयवंध कहा, और इसीको शुद्ध द्रव्यका कथन तथा ग्रहण योग्य कहा है, सो क्या कारण है ? यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि यह रागपरिणाम तो द्रव्यकी अशुद्धता करता है,
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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