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________________ १९४ - रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला - [अ० २, गा० ४६ जीवस्य स्वांशाल्पवहुत्वाभावादसंख्येयप्रदेशत्वमेव । अमूर्तसंवर्तविस्तारसिद्धिश्च स्थूलकृशशिशुकुमारशरीरव्यापित्वादस्ति स्वसंवेदनसाध्यैव । पुद्गलस्य तु द्रव्येणैकप्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वे यथोदिते सत्यपि द्विप्रदेशाद्युद्भवहेतुभूततथाविधस्निग्धरूक्षगुणपरिणामशक्तिस्वभावात्प्रदेशोद्भवत्वमस्ति । ततः पर्यायेणानेकप्रदेशत्वस्यापि संभवात् द्व्यादिसंख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशत्वमपि न्याय्यं पुलस्य ॥ ४५ ॥ अथ कालाणोरप्रदेशत्वमेवेति नियमयति दु समओ द अप्पदेसो पदसमेत्तस्स दवजादस्स । वविदो सो वहदि पदेसमागासवस्स ॥ ४६ ॥ समयस्त्वप्रदेशः प्रदेशमात्रस्य द्रव्यजातस्य । व्यतिपततः स वर्तते प्रदेशमाकाराद्रव्यस्य ॥ ४६ ॥ अप्रदेश एव समयो द्रव्येण प्रदेशसात्रत्वात् न च तस्य पुद्गलस्येव पर्यायेणाप्यनेकप्रपरमाणुः तेण पदेसुन्भवो भणिदो तेन परमाणुना प्रदेशस्योद्भव उत्पत्तिर्भणिता । परमाणुव्याप्त क्षेत्रं प्रदेशो भवति । तदग्रे विस्तरेण कथयति इह तु सूचितमेव ॥ ४५ ॥ एवं पञ्चमस्थले स्वतन्त्रगाथाद्वयं गतम् । अथ कालद्रव्यस्य द्वितीयादिप्रदेशरहितत्वेनाप्रदेशत्वं व्यवस्थापयति - समओ समयपर्यायस्योपादानकारणत्वात्समयः कालाणुः दु पुनः । स च कथंभूतः । प्रदेशमात्र है, [तेन ] उस परमाणुसे [ प्रदेशोद्भवः ] प्रदेशोंकी उत्पत्ति [ भणितः ] कही गई है । भावार्थ - सबसे सूक्ष्म (छोटा) अविभागी परमाणु होता है, वह परमाणु 'जितनी जगह रोके, उतनी जगहका नाम प्रदेश है । इस तरह आकाशके अनंत प्रदेश - होते हैं । उसी प्रकार प्रदेशसे धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, और एक जीवद्रव्यका माप किया जावे, तो असंख्यात असंख्यात प्रदेशी हैं, उनमें भी धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य सदा ही स्थिररूप हैं, तथा जीवद्रव्य संसार में संकोच विस्तारकर अथिर है, जैसे सूखा और गीला चर्म अनवस्थित है, तो भी अपने प्रदेशोंसे कम ज्यादा नहीं होता। इस प्रकार असंख्यात प्रदेशी है । यहाँपर कोई प्रश्न करे, कि आत्मा अमूर्त है, उसके संकोच विस्तार किस तरह हो सकता है ? तो उसका उत्तर यह है, कि जैसे कोई पुरुष मोटा है, वह क्षीण हो जाता है, और कोई क्षीणसे मोटा हो जाता है, इस दशामें उस पुरुषके शरीरके मोटे वा क्षीण होनेके साथ में ही आत्मा के प्रदेश भी संकोच और विस्तारको प्राप्त होते हैं, और जैसे बालक जब जवान होता है, तव आत्माके प्रदेश भी विस्ताररूप हो जाते हैं, इस कारण आत्माके संकोच विस्तार अच्छी तरह अनुभव में आते हैं, संदेह नहीं रहता । पुद्गलद्रव्य परमाणुकी अपेक्षा यद्यपि एक प्रदेशी है, तो भी द्व्यणुकादि होनेकी इसमें मिलन-शक्ति है, इसलिये द्व्यणुक वगैरह स्कंध (समूहरूप ) पर्यायोंकी अपेक्षा संख्यात, असंख्यात, अनंतप्रदेशी पुनलद्रव्य है, ||१५|| आगे कालाणुको अप्रदेशी दिखलाते हैं -- [तु] और [समयः ] कालद्रव्य [अ
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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