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________________ ४२.] . -प्रवचनसारः १८९ लानां स्थानहेतुत्वमधर्मस्य, अशेषशेषद्रव्याणां प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतुत्वं कालस्य, चैतन्यपरिणामो जीवस्य । एवममूर्तानां विशेषगुणसंक्षेपाधिगमे लिङ्गम् । तत्रैककालमेव सकलद्रव्यसाधारणावगाहसंपादनमसर्वगतत्वादेव शेषद्रव्याणामसंभवदाकाशमधिगमयति । तथैकवारमेव गतिपरिणतसमस्तजीवपुद्गलानामालोकागमनहेतुत्वमप्रदेशत्वात्कालपुद्गलयोः समुद्धातादन्यत्र लोकासंख्येयभागमात्रत्वाजीवस्य लोकालोकसीनोऽचलितत्वादाकाशस्य विरुद्धकार्यहेतुत्वादधर्मस्यासंभवद्धर्ममधिगमयति । तथैकवारमेव स्थितिपरिणतसमस्तजीवपुद्गलानामालोकात्स्थानहेतुत्वमप्रदेशत्वात्कालपुद्गलयोः, समुद्धातादन्यत्र लोकासंख्येयभागमात्रस्वाजीवस्य, लोकालोकसीनोऽचलितत्वादाकाशस्य, विरुद्धकार्यहेतुत्वाद्धर्मस्य चासंभवदधयुगपत्पर्यायपरिणतिहेतुत्वं विशेषगुणत्वादेवान्यद्रव्याणामसंभवत्कालद्रव्यं निश्चिनोति । सर्वजीवसाधारणं सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनद्वयं विशेषगुणत्वादेवान्याचेतनपञ्चद्रव्याणामसंभवत्सच्छुद्धबुद्धैकखभावं परमात्मद्रव्यं निश्चिनोति । अयमत्रार्थः यद्यपि पञ्चद्रव्याणि जीवस्योपकारं कुर्वन्ति तथापि तानि दुःखकारणान्येवेति ज्ञात्वा यदि वाक्षयानन्तसुखादिकारणं विशुद्धज्ञानदर्शनोपचिह्न है, क्योंकि अन्य पाँच द्रव्य हैं, वे सर्व व्यापक नहीं है, आकाश द्रव्य ही सर्वगत ( सबमें फैला हुआ) है, इस कारण पाँच द्रव्योंका अवगाह गुण नहीं हो सकता, और आकाश सवका भाजन है, क्योंकि सब द्रव्य इसीमें रहते हैं, इससे इस आकाशका अवगाह चिह्न है, वह गुण होता हुआ आकाशके अस्तिपने ( मौजूदगी ) को दिखाता है । जीव पुद्गलकी गतिको सहायता करनेवाला गतिहेतुत्वनामा गुण धर्मद्रव्यका ही चिह्न है, अन्य पाँच द्रव्योंका बन नहीं सकता, क्योंकि कालद्रव्य पुद्गल प्रदेशी है, इससे कालपुद्गलका गुण नहीं हो सकता । जो द्रव्य' अखंडरूप लोक प्रमाण हो, वही पुद्गलकी सब जगह गतिमें सहायता कर सकता है, और समुद्घातके विना जीवद्रव्य लोकके असंख्यातवें भागमें रहता है, इससे जीवद्रव्यका भी गुण नहीं हो सकता, और आकाशद्रव्य लोकालोकतक है। यदि आकाशका गुण हो, तो जीव पुद्गल अलोकमें गमन कर सकते हैं, सो ऐसा है नहीं। इस कारण आकाशका भी गुण नहीं है, अधर्मद्रव्य जीव पुद्गलकी स्थितिको सहायता देनेवाला है, उसको गति सहायता विरुद्ध पड़ती है, इस कारण अधर्मद्रव्यका भी गुण नहीं हो सकता। इसलिये यह गतिहेतु गुण एक धर्मद्रव्य ही को प्रगट दिखलाता है । उसी प्रकार एक ही वार स्थितिभावको परिणत हुए जीवपुद्गलोंको स्थितिका हेतु होना, ऐसा स्थितिहेतुत्व गुण एक अधर्मद्रव्यका ही है, क्योंकि कालपुद्गल अप्रदेशी और खंड हैं, इसलिये इन दोनोंका गुण नहीं हो सकता, और जीवद्रव्य समुद्धातके विना लोकप्रमाण होता ही नहीं, इससे जीवका भी गुण नहीं बन सकता, आकाशद्रव्य लोकालोक प्रमाण है, सो - यदि आकाशका गुण माना जावे, तो अलोकमें भी जीवपुद्गलकी स्थिति होनी चाहिये,
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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