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________________ २७.] १६७ मन्दचन्दनादिवनराजीं परिणमन्न द्रव्यत्वस्वादुत्वस्वभावमुपलभते, तथात्मापि प्रदेशभावाभ्यां कर्मपरिणमनान्नामूर्तत्वनिरुपरागविशुद्धिमत्त्वस्वभावमुपलभते ॥ २६ ॥ अथ जीवस्य द्रव्यत्वेनावस्थितत्वेऽपि पर्यायैरनवस्थितत्वं द्योतयति प्रवचनसारः जायद व ण णस्सदि खणभंगसमुन्भवे जणे कोई । जो हि भवो सो विलओ संभवविलयन्ति ते णाणा ॥ २७ ॥ जायते नैव न नश्यति क्षणभङ्गसमुद्भवे जने कश्चित् । यो हि भवः स विलयः संभवविलयाविति तौ नाना ॥ २७ ॥ इह तावन्न कश्चिज्जायते न म्रियते च । अथ च मनुष्यदेव तिर्यङ्गारकात्मको जीवलोकः प्रतिक्षणपरिणामित्वादुत्संगितक्षणभङ्गोत्पादः । न च विप्रतिषिद्धमेतत्, संभवविलययोरेकप्रवाहश्चन्दनादिवनराजिरूपेण परिणतः सन्खकीयकोमलशीतल निर्मलखभावं न लभते, तथायं जीवोsपि वृक्षस्थानीयकर्मोदयपरिणतः सन्परमाहादैकलक्षण सुखामृताखादनैर्मल्यादिखकीयगुणसमूहं न लभत इति ॥ २६ ॥ अथ जीवस्य द्रव्येण नित्यत्वेऽपि पर्यायेण विनश्वरत्वं दर्शयति - जायदि णेव ण णस्सदि जायते नैव न नश्यति द्रव्यार्थिकनयेन । क्क । खणभंगसमुब्भवे जणे कोई क्षणभङ्गसमुद्भवे जने कोऽपि । क्षणं क्षणं प्रति भङ्गसमुद्भवो यत्र संभवति क्षणभङ्गसमुद्भवस्तस्मिन्क्षणभङ्गसमुद्भवे विनश्वरे पर्यायार्थिकनयेन जने लोके जगति कश्चिदपि, तस्मान्नैव जायते न चोत्पद्यत इति हेतुं वदति जो हि भवो सो विलओ द्रव्यार्थिककर्मसे उत्पन्न होते हैं, परंतु इनसे जीवके स्वभावका नाश नहीं होता । जैसे- सोनेमें जड़ा हुआ माणिक रत्नका नाश नहीं होता है, उसी प्रकार जीवका भी नाश नहीं होता । किंतु उन पर्यायोंमें अपने अपने कर्मों के परिणमनसे यह जीव अपने चिदानंद शुद्ध स्वभावको नहीं पाता है । जैसे जलका प्रवाह वनमें अपने प्रदेशों और स्वादसे नीम चंदनादि वृक्षरूप होके परिणमन करता है, वहाँपर वह जल अपने द्रव्यस्वभाव और स्वाद स्वभावको नहीं पाता, उसी प्रकार यह आत्मा भी जब अपने प्रदेश और भावोंसे कर्मरूप होके परिणमता है, तब यही अमूर्त्तित्व और वीतराग चिदानंद स्वभावको नहीं पाता । इसलिये यह सिद्ध हुआ, कि यह जीव परिणमनके दोसे अनेकरूप हो जाता है, लेकिन उसके स्वभावका नाश नहीं होता || २६ ॥ आगे जीव यद्यपि द्रव्यपनेसे एक अवस्थारूप है, तो भी पर्यायोंसे अनवस्थित ( नानारूप ) है, ऐसा प्रगट करते हैं - [ क्षणभङ्गसमुद्भवे ] समय समय विनाश होनेवाले [ जने ] इस जीवलोक में [ कश्चित् ] कोई भी जीव [ नैव जायते ] न तो उत्पन्न होता है, [ न नश्यति ] और न नष्ट होता है । [ यः ] जो द्रव्य [हि ] निश्चयसे [ भवः ] उत्पत्तिरूप है, [ स ] वही वस्तु [ विलयः ] नाशरूप है । [ इति ] इसलिये [ तौ ] a [ संभवविलयौ ] उत्पाद और नाश ये दोनों पर्याय [ नाना ] भेद
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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