SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Hope PARA - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० २, गा० २४ चैतन्यपरिणामात्मिका । सा पुनरणोरण्वन्तरसंगतस्य परिणतिरिवात्मनो मोहसंवलितस्य द्व्यणुककार्यस्येव मनुष्यादिकार्यस्य निष्पादकत्वात्सफलैव । सैव मोहसंवलनविलयने १६४ पुनर - स्थलपञ्चकेन समुदायपातनिका । तद्यथा- - अथ नरकादिपर्यायाः कर्माधीनत्वेन विनश्वर - त्वादिति शुद्धनिश्चयनयेन जीवखरूपं न भवतीति भेदभावनां कथयति – एसो त्ति णत्थि कोई टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावपरमात्मद्रव्यवत्संसारे मनुष्यादिपर्यायेषु मध्ये सर्वदैवैक एकरूप एव नित्यः कोऽपि नास्ति । तर्हि मनुष्यादिपर्यायनिर्वर्तिका संसारक्रिया सापि न भविष्यति । ण णत्थि किरिया न नास्ति क्रिया मिथ्यात्वरागादिपरिण तिस्संसारः कर्मेति यावत् इति पर्यायनामचतुष्टयरूपा क्रियास्त्येव । सा च कथंभूता । सभावणिवत्ता शुद्धात्मस्वभावाद्विपरीतापि नरनारकादिविभावपर्यायस्वभावेन निर्वृत्ता । तर्हि किं निष्फला भविष्यति । किरिया हि णत्थि अफला क्रिया हि नास्त्यफला सा मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपा क्रिया यद्यप्यनन्तसुखादिगुणात्मकमोक्षकार्य प्रति निष्फला तथापि नानादुःखदायकस्वकीयकार्य भूतमनुष्यादिपर्यायनिर्वर्तकत्वात्सफलेति मनुष्यादिपर्यायनिष्पत्तिरेवास्याः फलम् । कथं ज्ञायत इति चेत् । धम्मो जदि . णिफलो परमो धर्मो यदि निष्फलः परमः नीरागपरमात्मोपलम्भपरिणतिरूपः आगमभाषया परमयथाख्यातचारित्ररूपो वा योऽसौ परमो धर्मः, स केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादकत्वात्सफलोऽपि नरनारकादिपर्यायकारणभूतं ज्ञानावरणादिकर्मबन्धं नोत्पादयति, ततः कारणान्निष्फलः । ततो ज्ञायते नरनारकादिसंसारकार्यं मिथ्यात्वरागादिक्रियायाः फलमिति । अथवास्य सूत्रस्य द्वितीयव्याख्यानं क्रियते यथा शुद्धनयेन रागादिविभावेन परिणमत्ययं जीवस्तथैवाशुद्धनयेनापि न परिणमतीति यदुक्तं सांख्येन तन्निराकृतम् । कथमिति चेत् । है। भावार्थ - संसार में कोई पर्याय नित्य नहीं है । यहाँ कोई यह कहे, कि र नरकादि पर्याय नित्य नहीं मानोगे, तो रागादि परिणतिरूप क्रिया भी नहीं हो सकती ? ऐसा कहना ठीक नहीं हैं, क्योंकि आत्मा अनादि काल से पुद्गलकर्मके निमित्तसे नानारूप परणमन करता है, इस कारण रागादि परिणतिरूप क्रिया है । उसी क्रियाके फल नर नारकादि पर्याय हैं, तथा पूर्व पर्याय आगेकी पर्यायसे विनाशीक हैं । जैसे स्निग्ध रूखे गुणोंकर परिणत हुई परमाणुओंकी क्रिया द्व्यणुकादि स्कंधरूप कार्यको उत्पन्न करती है, उसी प्रकार मोहसे मिली हुई आत्माकी क्रिया अवश्य ही मनुष्यादि पर्यायोंको उत्पन्न करती है, इस कारण क्रिया फलवती समझना चाहिये । दूसरा प्रमाण फलवती क्रिया होनेमें यह है, कि वीतरागभाव नरनारकादि पर्यायरूप फलरहित है, तो ऊपरसे यह बात सिद्ध ही है, कि रागादि परिणति - रूप क्रिया नर नारकादि पर्यायरूप फलवाली है । जैसे बंधयोग्य - स्निग्धरूक्ष-भावरहित परमाणु द्व्यणुकादि बंधको नहीं उत्पन्न कर सकते, उसी तरह परम वीतरागभाव मनुष्यादि
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy