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________________ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० २, गा०'२२लितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यग्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकान् विशेषाननेकानवलोकयतामनवलोकितसामान्यानामन्यदन्यत्प्रतिभाति । द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषेभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत् । यदा तु ते उभे अपि द्रव्यार्थिकपर्यायाथिके तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्वावलोक्यते तदा नारकतिर्यमनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायेषु व्यवस्थितं जीवसामान्य जीवसामान्ये च व्यवस्थिता नारकतिर्यग्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मका विशेषाश्च तुल्यकालमेवावलोक्यन्ते । तत्रैकचक्षुरवलोकनमेकदेशावलोकनं, द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनम् । ततः सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वनन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते ॥ २२ ॥ पुनः अन्यद्भिन्नमनेक पर्यायैः सह पृथग्भवति । कस्मादिति चेत् । तत्काले तम्मयत्तादो तृणाग्निकाष्ठाग्निपत्राग्निवत् खकीयपर्यायैः सह तत्काले तन्मयत्वादिति । एतावता किमुक्तं भवति । द्रव्यार्थिकनयेन यदा वस्तुपरीक्षा क्रियते तदा पर्यायसन्तानरूपेण सर्वं पर्यायकदम्बकं द्रव्यमेव प्रतिभाति । यदा तु पर्यायनयविवक्षा क्रियते तदा द्रव्यमपि पर्यायरूपेण भिन्न भिन्नं प्रतिभाति । यंदा च परस्परसापेक्षया नयद्वयेन युगपत्समीक्ष्यते, तदैकत्वमनेकत्वं च युगपत्प्रतिभातीति । यथेदं जीवद्रव्ये व्याख्यानं कृतं तथा सर्वद्रव्येषु यथासंभवं ज्ञातव्यमित्यर्थः ॥ २२ ॥ एवं सदुअन्यरूप द्रव्य होता है, अर्थात् नर नारक आदि पर्यायोंसे जुदा जुदा कहा जाता है। क्योंकि [तत्कालं] नर नरकादि पर्यायोंके होनेके समय वह द्रव्य [तन्मयत्वात्] उस पर्यायस्वरूप ही हो जाता है। भावार्थ-वस्तु समान्य, विशेपरूप दो प्रकारसे है। इन दोनोंके देखनेवाले हैं, उनके दो नेत्र कहे हैं-एक तो द्रव्यार्थिक, दूसरा पर्यायार्थिक । इन दोनों नेत्रोंमेंसे जो पर्यायार्थिक नेत्रको सर्वथा बंद करके एक द्रव्यार्थिक नेत्रसे ही देखे, तव नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव, सिद्ध पर्यायोंमें स्थित जो सामान्य एक जीव उसके देखनेवाले पुरुषोंको सब जगह जीव ही प्रतिभासता ( दीखता ) है, भेद नहीं मालूम होता । और जब द्रव्यार्थिक नेत्रको सर्वथा बंद कर एक पर्यायार्थिक नेत्रसे ही देखा जावे,तब जीवद्रव्यमें नर नारकादि पर्यायोंके देखनेवाले पुरुषोंको नर नारकादि पर्याय जुदा जुदा मालूम होते हैं। जिस कालमें जो पर्याय होता है, उस पर्यायमें जीव उसी स्वरूप परिणमता है। जैसे कि आग, गोबरके छाने-कंडे, तृण, पत्ता, काठ आदि अनेक ईंधनके आकार हो जाती है, उसी प्रकार जीव भी अनेक पर्यायोंको धारण करता हुआ, अनेक आकाररूप होजाता है। तथा जब द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोनों ही नेत्रोंसे इधर उधर संवं जगह देखा जाय, तो एक ही समय नर नारकादि पर्यायोंमें वही एक द्रव्य देखने में आता है, और अन्य अन्य रूप भी दीखता है । इस कारण एक नयरूप नेत्रसे देखना एक, अंगका देखना है तथा दो नयरूप नेत्रोंसे देखना सब अंगोंका देखना कहा जाता है। इसलिये सर्वांग द्रव्यके देखने में अन्यरूप और अनन्यरूप-इस तरह दो स्वरूप कहनेका निषेध नहीं हो
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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