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________________ १४.] -प्रवचनसार: - - १४७ भावस्याभावात् शुक्लोत्तरीयवदेव । तथाहि-यथा यः किलैकचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः समस्तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवति, न खलु तदखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, यच किलाखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, न खलु स एकचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः समस्तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवतीति तयोस्तद्भावस्याभावः । तथा या किलाश्रित्य वर्तिनी निर्गुणैकगुणसमुदिता विशेपणं विधायिका वृत्तिस्वरूपा सत्ता भवति, न खलु तदनाश्रित्य वर्ति गुणवदनेकगुणसमुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिमत्स्वरूपं च द्रव्यं भवति यत्तु किलानाश्रित्य वर्ति गुणवदनेकगुणसमुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिमत्स्वरूपं च द्रव्यं भवति, न खलु घटते, कस्माद्धेतोभिन्नप्रदेशाभावात् । कयोरिव । शुक्लवस्त्रशुक्लगुणयोरिव इदि सासणं हि वीरस्स इति शासनमुपदेश आज्ञेति । कस्य । वीरस्य वीराभिधानान्तिमतीर्थकरपरमदेवस्य । अण्णतं तथापि प्रदेशाभेदेऽपि मुक्तात्मद्रव्यशुद्धसत्तागुणयोरन्यत्वं भिन्नत्वं भवति । कथंभूतम् । अतब्भावो अतद्भावरूपं संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदखभावम् । यथा प्रदेशरूपेणाभेदस्तथा संज्ञादिलक्षणरूपेणाप्यभेदो भवतु को दोष इति चेत् । नैवम् । ण तब्भवं होदि तन्मुक्तात्मद्रव्यं शुद्धात्मसत्तागुणेन सह प्रदेशाभेदेऽपि संज्ञादिरूपेण तन्मयं न भवति कधमेगं तन्मयत्वं हि किलैकत्वलक्षणं संज्ञादिरूपेण तन्मयं त्वभावमेकत्वं किंतु नानात्वमेव । यदं मुक्तात्मद्रव्ये प्रदेशाभेदेऽपि संज्ञादिरूपेण नानात्वं कथितं तथैव सर्वव्याणां खकीयखकीयस्वरूपास्तित्वगुणेन सह भेदके विना संज्ञा, संख्या, लक्षणादिसे जो गुण-गुणी-भेद है, सो [अन्यत्वं] अन्यत्व है । परंतु सत्ता और द्रव्य [तद्भवं ] उसी भाव अर्थात् एक ही स्वरूप [न भवति] नहीं है, फिर [कथं एकं] दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । भावार्थजिस प्रकार दंड और दंडीमें प्रदेश-भेद है, उस प्रकारके प्रदेश-भेदको पृथक्त्व' कहते हैं । यह 'पृथक्त्व' सत्तामें नहीं है, क्योंकि सत्ता और द्रव्यमें प्रदेश-भेद नहीं है । जैसे वस्त्र और उसके शुक्ल गुणमें प्रदेश-भेद नहीं है, अभेद है। उसी प्रकार सत्ता और द्रव्यमें अभेद है, परंतु संज्ञा, संख्या, लक्षणादिके भेदसे जो द्रव्यका स्वरूप है, वह सत्ताका स्वरूप नहीं है, और जो सत्ताका स्वरूप है, वह द्रव्यका स्वरूप नहीं है। इस प्रकारके गुण-गुणी भेदको अन्यत्व कहते हैं। यह अन्यत्व भेद सत्ता और द्रव्यमें रहता है । यहाँ प्रश्न होता है कि, जैसे सत्ता और द्रव्यसे प्रदेश-भेद नहीं है, वैसे ही सत्ता-द्रव्यमें स्वरूपभेद भी नहीं है, फिर अन्यत्व-भेदके कहनेकी क्या आवश्यकता है ? सो इसका समाधान यह है, कि सत्ता और द्रव्यमें स्वरूप-भेद नहीं है, एक ही भाव है। ऐसा कहना बन नहीं सकता, क्योंकि सत्ता और द्रव्यमें संज्ञा, संख्या, लक्षणादिसे स्वरूप-भेद अवश्य ही है, फिर दोनों एक कैसे हो सकते हैं। अन्यत्व-भेद मानना ही पड़ेगा।
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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