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________________ १३८ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० २, गा० ९मृत्पिण्डस्यासंहरणौ सर्वेषामेव भावानामसंहरणिरेव भवेत् । सदुच्छेदे वा संविदादीनामप्युच्छेदः स्यात् । तथा केवलां स्थितिमुपगच्छन्त्या मृत्तिकाया व्यतिरेकाक्रान्तस्थित्यन्वयाभावादस्थानिरेव भवेत् , क्षणिकनित्यत्वमेव वा । तत्र मृत्तिकाया अस्थानौ सर्वेषामेव भावानामस्थानिरेव भवेत् । क्षणिकनित्यत्वे वा चित्तक्षणानामपि नित्यत्वं स्यात् । तत उत्तरोत्तरव्यतिरेकाणां सर्गेण पूर्वपूर्वव्यतिरेकाणां संहारेणान्वयस्थावस्थानेनाविनाभूतमुद्योतमाननिर्विघ्नत्रैलक्षण्यलाञ्छनं द्रव्यमवश्यमनुमन्तव्यम् ॥ ८॥ अथोत्पादादीनां द्रव्यादर्थान्तरत्वं संहरति उप्पादहिदिभंगा विजंते पजएस्तु पजाया । दवं हि संति णियदं तम्हा दवं वदि सवं ॥९॥ कारणाभावादिति, घटोत्पादाभावे मृत्पिण्डाभावस्य इव । उप्पादो वि य भंगो ण विणा दव्वेण अत्थेण परमात्मरुचिरूपसम्यक्त्वस्योत्पादस्तद्विपरीतमिथ्यात्वस्य भङ्गो वा नास्ति । कं विना । तदुभयाधारभूतपरमात्मरूपद्रव्यपदार्थ विना । कस्मात् । द्रव्याभावे व्ययोत्पादाभावान्मृत्तिकाद्रव्याभावे घटोत्पादमृत्पिण्डभङ्गाभावादिति । यथा सम्यक्त्वमिथ्यात्वपर्यायद्वये परस्परसापेक्षमुत्पादादित्रयं दर्शितं तथा सर्वद्रव्यपर्यायेषु द्रष्टव्यमित्यर्थः ॥ ८ ॥ अथोत्पादव्ययध्रौव्याणि द्रव्येण सह परस्पराधाराधेयभावत्वादन्वयद्रव्यार्थिकनयेन द्रव्यमेव भवतीत्युपदिशति-उप्पादहिदिभंगा विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावात्मतत्त्वनिर्विकारस्वसंवेदनज्ञानरूपेणोत्पादस्तस्मिन्नेव क्षणे स्वसंवेदनज्ञानविलक्षणाज्ञानपर्यायरूपेण भङ्गः, तदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्थारूपेण स्थितिरित्युक्तलगेंगे । और जो केवल व्यय ही मानेंगे, तो भी दो दूषण आवेंगे। एक तो नाश हीका अभाव हो जावेगा, क्योंकि मृत्पिडका नाश घड़ेके उत्पन्न होनेसे है, अर्थात् यदि केवल नाश ही मानेंगे, तो नाशका अभाव सिद्ध होगा, क्योंकि नाश उत्पादके विना नहीं होता। दूसरे, सत्का नाश होवेगा, और सत्के नाश होनेसे ज्ञानादिकका भी नाश होकर धारणा न होगी । और केवल ध्रुवके नाश माननेसे भी दो दूषण लगते हैं। एक तो. पर्यायका नाश होता है, दूसरे अनियको नित्यपना होता है । जो पर्यायका नाश होगा, तो पर्यायके विना द्रव्यका अस्तित्व नहीं है, इसलिये द्रव्यके नाशका प्रसंग आता है, जैसे मृत्तिकाका पिंड घटादि पर्यायोंके विना नहीं होता । और जो अनित्यको नित्यत्व होगा, तो मनकी गतिको भी नित्यता होगी । इसलिये इन सब कारणोंसे यह बात सिद्ध हुई, कि केवल एकके माननेसे वस्तु सिद्ध नहीं होती है । इसलिये आगामी पर्यायका उत्पाद, पूर्व पर्यायका व्यय, मूलवस्तुकी स्थिरता, इन तीनोंकी एकतासे ही द्रव्यका लक्षण निर्विघ्न सधता है ॥ ८॥ आगे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों भावोंको द्रव्यसे अभेदरूप सिद्ध करते हैं-[ उत्पादस्थितिभङ्गाः ] उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य [ पर्यायेषु ] द्रव्यके पर्यायोंमें [ विद्यन्ते ] रहते हैं, और [ हि ] निश्चय
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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