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________________ ९२.] -प्रवचनसारः - ११५ यत्प्रसिद्धये च 'धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो पावदि णिवाणसुह' इति निर्वाणसुखसाधनशुद्धोपयोगोऽधिकर्तुमारब्धः, शुभाशुभोपयोगौ च विरोधिनौ निर्वस्तौ, शुद्धोपयोगस्वरूपं चोपवर्णितं, तत्प्रसादजौ चात्मनो ज्ञानानन्दौ सहजो समुद्योतयता संवेदनखरूपं सुखस्वरूपं च प्रपञ्चितम् । तदधुना कथं कथमपि शुद्धोपयोगप्रसादेन प्रसाध्य परनिस्पृहतामात्मदृप्तां पारमेश्वरीप्रवृत्तिमभ्युपगतः कृतकृत्यतामवाप्य नितान्तमनाकुलो भूत्वा प्रलीनभेदवासनोन्मेषः स्वयं साक्षाद्धर्म एवास्मीत्यवतिष्ठते जो णिहदमोहदिट्टी आगमकुसलो विरागचरियम्हि । अभुट्टिदो महप्पा धम्मो त्ति विसेसिदो समणो ॥ ९२॥ र्मोऽपि न संभवतीति सूत्रार्थः ॥ ९१ ॥ अथ ‘उवसंपयामि सम्म' इत्यादि नमस्कारगाथायां यत्प्रतिज्ञातं, तदनन्तरं 'चारित्तं खलु धम्मो' इत्यादिसूत्रेण चारित्रस्य धर्मत्वं व्यवस्थापितम् । अथ 'परिणमदि जेण दवं' इत्यादिसूत्रेणात्मनो धर्मत्वं भणितमित्यादि । तत्सर्व शुद्धोपयोगप्रसादात्प्रसाध्येदानी निश्चयरत्नत्रयपरिणत आत्मैव धर्म इत्यवतिष्ठते । अथवा द्वितीयपातनिका-सम्यक्त्वाभावे श्रमणो न भवति तस्मात् श्रमणाद्धर्मोऽपि न भवति, तर्हि कथं श्रमणो भवति, इति पृष्टे प्रत्युत्तरं प्रयच्छन् ज्ञानाधिकारमुपसंहरति--जो णिहदमोहदिदी तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणव्यवहारसम्यक्त्वोत्पन्नेन निजशुद्धात्मरुचिरूपेण निश्चयसम्यक्त्वेन परिणतत्वान्निहतमोहदृष्टिर्विध्वंसितदर्शनमोहो यः । पुनश्च किंरूपः । आगमकुसलो निर्दोषिपरमात्मवह यति नहीं है। सम्यक्त्व भावके विना द्रव्यलिंग अवस्थाको धारण करके व्यर्थ ही खेदखिन्न होता है, क्योंकि इस अवस्थासे आत्मीक-धर्मकी संभावना नहीं है। जैसे धूलका धोनेवाला न्यारिया यदि सोनेकी कणिकाओंको पहचाननेवाला नहीं होवे, तो वह कितना भी कष्ट क्यों न उठावे, परंतु उसे सुवर्णकी प्राप्ति नहीं होती, इसी प्रकार संयमादि क्रियामें कितना ही खेद क्यों न करे, परंतु लक्षणोंसे स्व पर भेदके विना वीतराग आत्म-तत्त्वकी प्राप्तिरूप धर्म इस जीवके उत्पन्न नहीं होता ॥ ९१ ॥ पूर्व ही आचार्यने "उवसंपयामि सम्म" इत्यादि गाथासे साम्यभाव मोक्षका कारण अंगीकार किया था, और "चारित्तं खलु धम्मो” आदि गाथासे साम्यभाव ही शुद्धोपयोगरूप धर्म है, ऐसा कहकर "परिणमदि जेण दबं" इस गाथासे साम्यभावसे आत्माकी एकता बतलाई थी। इसके पश्चान् साम्यधर्मकी सिद्धि होने के लिये "धम्मेण परिणदप्पा" इससे मोक्ष-सुखका कारण शुद्धोपयोगके अधिकारका आरंभ किया था । उसमें शुद्धोपयोग भलीभाँति दिखलाया, और उसके प्रतिपक्षी संसारके कारण शुभाशुभोपयोगको मूलसे नाश करके शुद्धोपयोगके प्रसादसे उत्पन्न हुए अतीन्द्रियज्ञान सुखोंका स्वरूप कहा । अब मैं शुद्धोपयोगके प्रसादसे परभावोंसे भिन्न, आत्मीक-भावोंकर पूर्ण उत्कृष्ट परमात्म-दशाको प्राप्त, कृतकृत्य और अत्यंत आकुलता रहित होकर संसार-भेद-वासनासे मुक्त आपमें साक्षात् धर्मस्वरूप होकर स्थित होता हूँ-[य] जो [ निहतमोहदृष्टिः ] दर्शनमोहका घात - करनेवाला . अर्थात् सम्यग्दृष्टि है, तथा [ आगमकुशल] जिन प्रणीत
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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