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________________ ९०.] -प्रवचनसारः- . ११३ तामुपादाय विशेषणतामुपगतैरनन्तायां द्रव्यसंततौ स्वपरविवेकमुपगच्छन्तु मोहप्रहाणप्रवणबुद्धयो लब्धवर्णाः । तथाहि-यदिदं सदकारणतया स्वतः सिद्धमन्तर्वहिर्मुखप्रकाशशालितया स्वपरपरिच्छेदकं मदीयं मम नाम चैतन्यमहमनेन तेन समानजातीयमसमानजातीयं वा द्रव्यमन्यदपहाय ममात्मन्येव वर्तमानेनात्मीयमात्मानं सकलत्रिकालकलितध्रौव्यं द्रव्यं जानामि । एवं पृथक्त्ववृत्तस्खलक्षणैर्द्रव्यमन्यदपहाय तस्मिन्नेव च वर्तमानैः सकलत्रिकालकलितध्रौव्यं द्रव्यमाकाशं धर्ममधर्म कालं पुद्गलमात्मान्तरं च निश्चिनोति । ततो नाहमाकाशं न धर्मो नाधर्मों न च कालो न पुद्गलो नात्मान्तरं च भवामि, यतोऽमीष्वेकापवरकप्रबोधितानेकदीपप्रकाशेष्विव संभूयावस्थितेष्वपि मचैतन्यं स्वरूपादप्रच्युतमेव मां पृथगवगमयति । एवमस्य निश्चितस्वपरविवेकस्यात्मनो न खलु विकारकारिणो मोहाकुरस्य प्रादुर्भूतिः स्यात् ॥ ९० ॥ चेत् । स कः । अप्पा आत्मा । कस्य संबन्धित्वेन अप्पणो आत्मन इति । तथाहि-यदिदं मम चैतन्यं स्वपरप्रकाशकं तेनाहं कर्ता शुद्धज्ञानदर्शनभावं स्वकीयमात्मानं जानामि, परं च पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपं शेषजीवान्तरं च पररूपेण जानामि, ततः कारणादेकापवरकप्रबोधितानेकप्रदीपप्रकाशेण्वेव संभूयावस्थितेष्वपि सर्वद्रव्येषु मम सहजशुद्धचिदानन्दैकखभावस्य केनापि जाने । भावार्थ-द्रव्योंके गुण दो प्रकारके हैं, एक सामान्य और दूसरे विशेष । इनमेंसे सामान्य गुणोंके द्वारा द्रव्योंका भेद नहीं हो सकता, इसलिये बुद्धिमान् पुरुपोंको चाहिये, कि विशेष गुणोंके द्वारा अनन्त द्रव्यकी संतति में अपना और परका भेद करें। इस कारण अब उस ख पर भेदका प्रकार कहते हैं-इस अनादिनिधन, किसीसे उत्पन्न नहीं हुए, अंतर बाहिर दैदीप्यमान, स्व परके जाननेवाले अपने चैतन्य गुणसे अन्य जीव द्रव्य तथा अजीव द्रव्य इनको जुदा करके मैं आप विपे तीनों काल अविनाशी अपने स्वरूपको जानता हूँ, और आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल, तथा अन्य जीव जो हैं, उनके भेद भिन्न भिन्न (जुदा जुदा) विशेष लक्षणोंसे अपने अपने में तीन काल अविनाशी ऐसे इनके स्वरूपको भी मैं जानता हूँ। इसलिये मैं आकाश नहीं हूँ, धर्म नहीं हूँ, अधर्म नहीं हूँ, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूँ, और अन्य जीव भी नहीं हूँ। मैं जो हूँ, सो हूँ। जैसे एक घरमें अनेक दीपक जलानेसे उन सवका प्रकाश उस घरमें एक जगह मिला हुआ रहता है, इसी प्रकार ये छह द्रव्य एक क्षेत्रमें रहते हैं, परंतु मेरा द्रव्य इन सबसे भिन्न है। जैसे सब दीपकोंका प्रकाश देखनेसे तो मिला हुआ सा दिखाई देता है, परंतु सूक्ष्म दृष्टिसे विचारपूर्वक देखा जावे, तो जो जिस दीपकका प्रकाश है, वह उसीका है। इसी प्रकार यह मेरा चैतन्य स्वरूप मुझको सबसे पृथक् दिखलाता है। इस प्रकार ख पर विवेकवाले आत्माके फिर मोहरूपी अंकुरकी उत्पत्ति नहीं होती ॥ ९० ॥ प्र. १५
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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