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________________ १०९ ८७.].. . - प्रवचनसार:तदविरोधिना प्रमाणजातेन तत्त्वतः समस्तमपि वस्तुजातं परिच्छिन्दता क्षीयत एवातत्त्वाभिनिवेशसंस्कारकारी मोहोपचयः । अतो हि मोहक्षपणे परमं शब्दब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टम्भदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपायान्तरम् ॥ ८६ ॥ अथ कथं जैनेन्द्रे शब्दब्रह्मणि किलार्थानां व्यवस्थितिरिति वितर्कयति‘दवाणि गुणा तेसिं पज्जाया अहसण्णया भणिया। तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव त्ति उवदेसो ॥ ८७॥ द्रव्याणि गुणास्तेषां पर्याया अर्थसंज्ञया भणिताः। तेषु गुणपर्यायाणामात्मा द्रव्यमित्युपदेशः ॥ ८७॥ नत्ति । तथैवानुमानेन वा, तथाहि-अत्रैव देहे निश्चयनयेन शुद्धबुद्धैकखभावः परमात्मास्ति । कस्माद्धेतोः । निर्विकारस्वसंवेदनप्रत्यक्षत्वात् सुखादिवत् इति, तथैवान्येऽपि पदार्था यथासंभवमागमाभ्यासबलोत्पन्न प्रत्यक्षेणानुमानेन वा ज्ञायन्ते । ततो मोक्षार्थिना भव्येनागमाभ्यासः कर्तव्य इति तात्पर्यम् ॥ ८६ ॥ अथ द्रव्यगुणपर्यायाणामर्थसंज्ञां कथयति-दवाणि गुणा तेसिं पज्जाया असण्णया भणिया द्रव्याणि गुणास्तेषां द्रव्याणां पर्यायाश्च त्रयोऽप्यर्थसं. ज्ञया भणिताः कथिता अर्थसंज्ञा भवन्तीत्यर्थः । तेसु तेषु त्रिषु द्रव्यगुणपर्यायेषु मध्ये गुणपजयाणं अप्पा गुणपर्यायाणां संबन्धी आत्मा स्वभावः । कः इति पृष्टे । दव त्ति उवदेसो क्रीड़ा करते हैं। जिनागमके बलसे उनके आत्म-ज्ञान-शक्तिरूप संपदा प्रगट होती है। तथा प्रत्यक्ष परोक्ष ज्ञानसे सब वस्तुओंके ज्ञाता द्रष्टा होते हैं, और तभी उनके यथार्थ ज्ञानसे मोहका नाश होता है। इसलिये मोहनाशके उपायोंमें शास्त्ररूप शब्द-ब्रह्मकी सेवा करना योग्य है। भावभुत ज्ञानके बलसे दृढ़ परिणाम करके आगम-पाठका अभ्यास करना, यह बड़ा उपाय है ॥८६॥ अब कहते हैं, कि जिनभगवानके कहे हुए शब्द-ब्रह्ममें सब पदार्थोंके कथनकी यथार्थ स्थिति है-[द्रव्याणि] गुण पर्यायोंके आधाररूप सब द्रव्य [ तेषां] उन द्रव्योंके [गुणाः] सहभावी गुण और [पर्यायाः] क्रमवर्ती पर्याय [अर्थसंज्ञया] 'अर्थ' ऐसे नामसे [भणिताः] कहे हैं। [तेषु] उन गुण पर्यायोंमें [गुणपर्यायाणां] गुण पर्यायोंका [ आत्मा] सर्वस्व [ द्रव्यं] द्रव्य है। [इति] ऐसा [उपदेशः] भगवानका उपदेश है । भावार्थ-द्रव्य, गुण, पर्याय, इन तीनोंका 'अर्थ' ऐसा नाम है । क्योंकि समय समय अपने गुण पर्यायोंके प्रति प्राप्त होते हैं, अथवा गुण पर्यायों करके अपने स्वरूपको प्राप्त होते हैं, इसलिये द्रव्योंका नाम 'अर्थ' है । 'अर्थ' शब्दका अर्थ गमन अथवा प्राप्त होता है, क्योंकि आधारभूत द्रव्यको प्राप्त होता है, अथवा द्रव्य करके प्राप्त किया जाता है, इसलिये गुणोंका नाम 'अर्थ' है, और क्रमसे परिणमन करके द्रव्यको. प्राप्त होते हैं, अथवा द्रव्य करके अपने स्वरूपको प्राप्त होते हैं, इसलिये पर्या
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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