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________________ कायद्या - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० १, गा० ६७अथात्मनः स्वयमेव सुखपरिणामशक्तियोगित्वाद्विषयाणामकिंचित्करत्वं द्योतयतितिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कायछ । तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुवंति ॥ ६७ ॥ तिमिरहरा यदि दृष्टिर्जनस्य दीपेन नास्ति कर्तव्यम् । तथा सौख्यं स्वयमात्मा विषयाः किं तत्र कुर्वन्ति ॥ ६७ ॥ ___ यथा हि केषांचिन्नक्तंचराणां चक्षुषः स्वयमेव तिमिरविकरणशक्तियोगित्वान्न तदपाकरणप्रवणेन प्रदीपप्रकाशादिना कार्य, एवमस्यात्मनः संसारे मुक्तौ वा स्वयमेव सुखदिव्यं तत्किल सुखकारणं भविष्यतीत्याशङ्का निराकरोति-एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि एकान्तेन हि स्फुटं देहः कर्ता सुखं न करोति । कस्य । देहिनः संसारिजीवस्य । क । सग्गे वा आस्तां तावन्मनुष्याणां मनुष्यदेहः सुखं न करोति, खर्गे वा योऽसौ दिव्यो देवदेहः सोऽप्युपचारं विहाय सुखं न करोति । विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा किंतु निश्चयेन निर्विषयामूर्तखाभाविकसदानन्दैकसुखस्वभावोऽपि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशाद्विषयाधीनत्वेन परिणम्य सांसारिकसुखं दुःखं वा खयमात्मैव भवति, न च देह इत्यभिप्रायः ॥ ६६ ॥ एवं मुक्तात्मनां देहाभावेऽपि सुखमस्तीति परिज्ञानार्थ संसारिणामपि देहः सुखकारणं न भवतीतिकथनरूपेण गाथाद्वयं गतम् । अथात्मनः खयमेवसुखस्वभावत्वान्निश्चयेन यथा देहः सुखकारणं न भवति तथा विषया अपीति प्रतिपादयति-जइ यदि दिट्ठी नक्तंचरजनस्य दृष्टिः तिमिरहरा अन्धकारहरा भवति जणस्स जनस्य दीवेण णस्थि आत्मा ही सुखका कारण है" इसी वातको फिर दृढ़ करते हैं-[एकान्तेन] 'सब तरहसे [हि ] निश्चय कर [ देह ] शरीर [ देहिनः] देहधारी आत्माको [खर्गे वा] स्वर्गमें भी [सुखं] सुखरूप [न करोति ] नहीं करता [तु] किंतु [विषयवशेन ] विषयोंके आधीन होकर [आत्मा स्वयं] यह आत्मा आप ही [सौख्यं वा दुःखं] सुखरूप अथवा दुःखरूप [भवति] होता है । भावार्थसब गतियोंमें स्वर्गगति उत्कृष्ट है, परंतु उसमें भी उत्तम वैक्रियकशरीर सुखका कारण नहीं है, औरोंकी तो वात क्या है। क्योंकि इस आत्माका एक ऐसा स्वभाव है, कि वह इष्ट अनिष्ट पदार्थोके वश होकर आप ही सुख दुःखकी कल्पना कर लेता है । यथार्थमें शरीर सुख दुःखका कारण नहीं है ॥ ६६ ।। अव कहते हैं, कि आत्माका स्वभाव ही सुख है, इसलिये इन्द्रियोंके विषय भी सुखके कारण नहीं हैं-[यदि] जो [जनस्य ] चोर आदि जीवकी [दृष्टिः] देखनेकी शक्ति [तिमिरहरा] . अंधकारके दूर करनेवाली हो [तदा] तो उसे [दीपेन] दीपकसे [कर्तव्यं] कुछ कार्य करना [नास्ति] नहीं है, [तथा] उसी प्रकार [आत्मा] जीव
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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