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________________ ७४ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० १, गा० ५६स्पर्शी रसश्च गन्धो वर्णः शब्दश्च पुद्गला भवन्ति । अक्षाणां तान्यक्षाणि युगपत्तान्नैव गृह्णन्ति ॥ ५६ ॥ इन्द्रियाणां हि स्पर्शरसगन्धवर्णप्रधानाः शब्दश्च ग्रहणयोग्याः पुद्गलाः । अथेन्द्रियैर्युगपत्तेऽपि न गृह्यन्ते, तथाविधक्षयोपशमनशक्तेरसंभवात् । इन्द्रियाणां हि क्षयोपशमसंज्ञिकायाः परिच्छेच्याः शक्तेरन्तरङ्गायाः काकाक्षितारकवत् क्रमप्रवृत्तिवशादनेकतः प्रकाश: यितुमसमर्थत्वात्सत्स्वपि द्रव्येन्द्रियद्वारेषु न यौगपद्येन निखिलेन्द्रियार्थावबोधः सिद्ध्येत् , परोक्षत्वात् ॥५६॥ रसो य गन्धो वण्णो सहो य पुग्गला होति स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दाः पुगला मूर्ती भवन्ति । ते च विषयाः । केषाम् । अक्खाणं स्पर्शनादीन्द्रियाणां ते अक्खा तान्यक्षाणीन्द्रियाणि कर्तृणि जुगवं ते णेव गेण्हति युगपत्तान् खकीयविषयानपि न गृह्णन्ति न जानन्तीति । अयमत्रामिप्रायः-यथा सर्वप्रकारोपादेयभूतस्यानन्तसुखस्योपादानकारणभूतं केवलज्ञानं युगपत्समस्तं वस्तु जानत्सत् जीवस्य सुखकारणं भवति तथेदमिन्द्रियज्ञानं स्वकीयविषयेऽपि मूर्तीक पदार्थोंको जानता है, तो भी एक ही बार नहीं जानता, इसलिये हेय है, ऐसा कहते हैं-[अक्षाणां] पाँचों इन्द्रियोंके [ स्पर्शः] स्पर्श [रसः] रस [च गन्धः] - और गंध [ वर्णः ] रूप [च ] तथा [ शब्दः ] शब्द ये पाँच विषय [ पुद्गलाः] पुद्गलमयी [भवन्ति ] हैं । अर्थात् पाँच इंद्रियाँ उक्त स्पर्शादि पाँचों विषयोंको जानती हैं, परंतु [ तानि अक्षाणि ] वे इंद्रियाँ [ तान् ] उन पाँचों विषयोंको [युगपत् ] एक ही बार [ नैव ] नहीं [गृह्णन्ति ] ग्रहण करतीं । भावार्थ-ये स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियाँ अपने अपने स्पर्शादि विषयोंको ग्रहण करती हैं, परंतु एक ही समय ग्रहण नहीं कर सकतीं । अर्थात् जिस समय जिह्वा इंद्रिय रसका अनुभव करती है, उस समय । अन्य श्रोत्रादि इंद्रियोंका कार्य नहीं होता । सारांश-एक इंद्रियका जव कार्य होता है, तब दूसरीका बन्द रहता है, क्योंकि अंतरंगमें जो क्षायोपशमिकज्ञान है, उसकी शक्ति कमसे प्रवर्तती है। जैसे काकके दोनों नेत्रोंकी पूतली एक ही होती है, परंतु वह पूतली ऐसी चंचल है, कि लोगोंको यह मालूम पड़ता है, जो दोनों नेत्रोंमें जुदी जुदी पूतली हैं। . यथार्थमें वह एक ही है, जिस समय वह जिस नेत्रसे देखता है, उस समय उसी नेत्रमें आ जाती है, परंतु एक बार दोनों नेत्रोंसे नहीं देख सकता। यही दशा क्षायोपशमिक. ज्ञानकी है। यह ज्ञान स्पर्शादि पाँचों विषयोंको एक ही बार जाननेमें असमर्थ है। जिस समय जिस इंद्रियरूप द्वारमें जाननेरूप प्रवृत्ति करता है, उस समय उसी द्वारमें रहता है, अन्य द्रव्येन्द्रिय द्वारमें नहीं । इस कारण एक ही काल सय इन्द्रियोंसे शान । नहीं होता। इसी लिये इन्द्रियज्ञान परोक्ष है, पराधीन है, और हेय है ॥ ५६ ॥
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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