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________________ ४७.] -प्रवचनसारः - धापितासमानजातीयत्वोद्दामितवैषम्यं क्षायिकं ज्ञानं किल जानीयात् । तस्य हि क्रमप्रवृत्तिहेतुभूतानां क्षयोपशमावस्थावस्थितज्ञानावरणीयकर्मपुद्गलानामत्यन्ताभावात्तात्कालिकमतात्कालिकं वाप्यर्थजातं तुल्यकालमेव प्रकाशेत । सर्वतो विशुद्धस्य प्रतिनियतदेशविशुद्धेरन्तःप्लवनात् समन्ततोऽपि प्रकाशेत । सर्वावरणक्षयादेशावरणक्षयोपशमस्यानवस्थानात्सर्वमपि प्रकाशेत । सर्वप्रकारज्ञानावरणीयक्षयादसर्वप्रकारज्ञानावरणीयक्षयोपशमस्य विलयनाद्विचित्रमपि प्रकाशेत । असमानजातीयज्ञानावरणक्षयात्समानजातीयज्ञानावरणीयक्षयोपशमस्य विनाशनाद्विषममपि प्रकाशेत । अलमथवातिविस्तरेण, अनिवारितप्रसरप्रकाशशालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेव जानीयात् ॥४७॥ सर्वज्ञत्वेन निरूपयति-जं यज्ज्ञानं कर्तृ जाणदि जानाति । कम् । अत्थं अर्थ पदार्थमिति विशेष्यपदम् । किं विशिष्टम् । तत्कालियमिदरं तात्कालिकं वर्तमानमितरं चातीतानागतम् । कथं जानाति । जुगवं युगपदेकसमये समंतदो समन्ततः सर्वात्मप्रदेशैः सर्वप्रकारेण वा । कतिसंख्योपेतम् । सवं समस्तम् । पुनरपि किंविशिष्टम् । विचित्तं नानाभेदभिन्नम् । पुनरपि किंरूपम् । विसमं मूर्तामूर्तचेतनाचेतनादिजात्यन्तरविशेषैर्विसदृशं तं णाणं खाइयं भणियं यदेवं गुणविशिष्टं ज्ञानं तत्क्षायिकं भणितम् । अभेदनयेन तदेव सर्वज्ञस्वरूपं तदेवोपादेयभूतानन्तसुखाद्यनन्तगुणानामाधारभूतं सर्वप्रकारोपादेयरूपेण भावनीयम् । इति तात्पर्यम् ॥ १७ ॥ एकसा नहीं, ऐसे [सर्व अर्थ] सब ही पदार्थोके समूहको [युगपत् ] एक ही समयमें [जानाति] जानता है, [तद्ज्ञानं] उस ज्ञानको [क्षायिकं ] क्षायिक अर्थात् कर्मके क्षयसे प्रगट हुआ अतीन्द्रिय ऐसा [भणितं] कहा है। भावार्थअतीत, अनागत, वर्तमानकाल संबंधी नानाप्रकार विपमता सहित समस्त पदार्थोंको सर्वांग एक समयमें प्रकाशित करनेको एक अतीन्द्रिय क्षायिककेवलज्ञान ही समर्थ है, अन्य किसी ज्ञानकी शक्ति नहीं है। ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे जो ज्ञान एक ही बार सब पदार्थों को नहीं जानता, क्रम लिये जानता है, ऐसे क्षायोपशमिकज्ञानका भी केवलज्ञानमें अभाव है, क्योंकि केवलज्ञान एक ही बार सबको जानता है, और क्षायोपशमिकज्ञान एकदेश निर्मल है, इसलिये सर्वाग वस्तुको नहीं जानता, क्षायिकज्ञान सर्वदेश विशुद्ध है, इसीमें एकदेश निर्मलज्ञान भी समा जाता है इसलिये वस्तुको सर्वागसे प्रकाशित करता है, और इस केवलज्ञानके सव आवरणका नाश है, मतिज्ञानावरणादि क्षयोपशमका भी अभाव है, इस कारण सब वस्तुको प्रकाशित करता है। इस केवलज्ञानमें मतिज्ञानावरणादि पाँचों कर्मोंका क्षय हुआ है, इससे नाना प्रकार वस्तुको प्रकाशता है, और असमान जातीय केवलज्ञानावरणका क्षय तथा समान जातीय मतिज्ञानावरणादि चारके क्षयोपशमका क्षय है, इसलिये विपमको प्रकाशित करता है । क्षायिकज्ञानकी महिमा कहाँतक कही जावे, अति विस्तारसे भी पूर्णता नहीं हो सकती,
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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