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________________ -प्रवचनसारः ४७ वत् । न तु यथा पृथग्वर्तिना दात्रेण लावको भवति देवदत्तस्तथा ज्ञायको भवत्यात्मा । तथा सत्युभयोरचेतनत्वमचेतनयोः संयोगेऽपि न परिच्छित्तिनिष्पत्तिः । पृथक्त्ववर्तिनोरपि परिच्छेदाभ्युपगमे परपरिच्छेदेन परस्य परिच्छित्तिभूतिप्रभृतीनां च परिच्छित्तिप्रभूतिरनकुशा स्यात् । किंच-स्वतोव्यतिरिक्तसमस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतं ज्ञानं, स्वयं परिणममानस्य कार्यभूतसमस्तज्ञेयाकारकारणीभूताः सर्वेऽर्था ज्ञानवर्तिन एव कथंचिद्भवन्ति, किं ज्ञातृज्ञानविभागक्लेशकल्पनया ॥ ३५॥ अथ किं ज्ञानं किं ज्ञेयमिति व्यनक्ति तम्हा णाणं जीवो णेयं दवं तिहा समक्खादं । दवं ति पुणो आदा परं च परिणामसंबद्धं ॥ ३६॥ लावको भवति देवदत्तस्तथा भिन्नज्ञानेन ज्ञायको भवतु को दोष इति । नैवम् । छेदनक्रियाविषये दानं बहिरङ्गोपकरणं तद्भिन्नं भवतु, अभ्यन्तरोपकरणं तु देवदत्तस्य छेदनक्रियाविषये शक्तिविशेषस्तच्चाभिन्नमेव भवति । उपाध्यायप्रकाशादिबहिरङ्गोपकरणं तद्भिन्नमपि भवतु दोषो नास्ति । यदि च भिन्नज्ञानेन ज्ञानी भवति तर्हि परकीयज्ञानेन सर्वेऽपि कुम्भस्तम्भादिजडपदार्था ज्ञानिनो भवन्तु न च तथा । णाणं परिणमदि सयं यत एव भिन्नज्ञानेन ज्ञानी न भवति तत एव घटोत्पत्तौ मृपिण्ड इव खयमेवोपादानरूपेणात्मा ज्ञानं परिणमति । अट्ठा णाणट्ठिया सवे व्यवहारेण ज्ञेयपदार्था आदर्श बिम्बमिव परिच्छित्याकारेण ज्ञाने तिष्ठन्तीत्यभिप्रायः ॥ ३५ ॥ अथात्मा ज्ञानं भवति शेषं तु ज्ञेयमित्यावेदयति-तम्हा णाणं जीवो। यस्मादात्मैवोपादानहै, इसमें व्यवहारसे भिन्नपना ( भेद) है, वस्तुतः आत्मा और ज्ञान एक ही है। और जैसे कोई पुरुष लोहे के दाँते (हँसिये ) से धासका काटनेवाला कहलाता है, उस तरह आत्मा ज्ञानसे जाननेवाला नहीं कहा जाता, क्योंकि घासका काटनेवाला पुरुष और घास काटनेमें कारण लोहेका दॉता ये दोनों जैसे जुदा जुदा पदार्थ हैं, उसी प्रकार आत्मा और ज्ञानमें जुदापना नहीं है, क्योंकि आत्मा और ज्ञान, अग्नि और उष्णताकी तरह अभिन्न ही देखने में आते हैं, जुदे नहीं दीखते, और जो कोई अन्यवादी मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि, आत्मासे ज्ञान भिन्न है, ज्ञानके संयोगसे आत्मा ज्ञायक है । सो उन्हें "आत्मा अचेतन है, ज्ञानके संयोगसे चेतन हो जाता है," ऐसा मानना पड़ेगा। जिससे धूलि, भस्म, घट, पटादि समस्त अचेतन पदार्थ चेतन हो जायेंगे, क्योंकि जब ये पदार्थ जाने जाते हैं, तब इन धूलि वगैरः पदार्थोसे भी ज्ञानका संयोग होता है। इस कारण इस दोषके मेंटनेके लिये आत्मा और ज्ञान एक ही मानना चाहिये । और जैसे आरसीमें घटपटादि पदार्थ प्रतिविम्बरूपसे रहते हैं, उसी प्रकार ज्ञानमें सव ज्ञेयपदार्थ आ रहते हैं । इससे यह सारांश निकला, कि आत्मा और ज्ञान अभिन्न हैं, अन्यवादियोंकी तरह भिन्न नहीं हैं ॥ ३५ ॥ आगे "ज्ञान क्या है, और ज्ञेय क्या
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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