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________________ ५]. --प्रवचनसारः-. योगभूमिकानाचार्योपाध्यायसाधुत्वविशिष्टान् श्रमणांश्च प्रणमामि ॥ २ ॥ तदन्वेतानेव - पञ्चपरमेष्ठिनस्तत्तद्वयक्तिव्यापिनः सर्वानेव सांप्रतमेतत्क्षेत्रसंभवतीर्थकरासंभवान्महाविदेहभूमिसंभवत्वे सति मनुष्यक्षेत्रप्रवर्तिभिस्तीर्थनायकैः सह वर्तमानकालं गोचरीकृत्य युगपधुगपत्प्रत्येकं प्रत्येकं च मोक्षलक्ष्मीस्वयंवरायमाणपरमनैर्ग्रन्थ्यदीक्षाक्षणोचितमङ्गलाचारभूतकृतिकर्मशास्त्रोपदिष्टवन्दनाभिधानेन संभावयामि ॥३॥ अथैवमर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वरियायारे सर्वविशुद्धद्रव्यगुणपर्यायात्मके चिद्वस्तुनि यासौ रागादिविकल्परहितनिश्चलचित्तवृत्तिस्तदन्तर्भूतेन व्यवहारपञ्चाचारसहकारिकारणोत्पन्नेन निश्चयपञ्चाचारेण परिणतत्वात् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारोपेतानिति । एवं शेषत्रयोविंशतितीर्थकरनमस्कारमुख्यत्वेन गाथा गता ॥२॥ अथ ते ते सबे तांस्तान्पूर्वोक्तानेव पञ्चपरमेष्ठिनः सर्वान् वंदामि य वन्दे, अहं कर्ता । कथं समगं समगं समुदायवन्दनापेक्षया युगपद्युगपत् । पुनरपि कथं पत्तेगमेव पत्तेगं प्रत्येकवन्दनापेक्षया प्रत्येकं प्रत्येकम् । न केवलमेतान् वन्दे अरहते अर्हतः । किंविशिष्टान् वदृते माणुसे खेत्ते वर्तमानान् । क, मानुषे क्षेत्रे । तथाहि—साम्प्रतमत्र भरतक्षेत्रे तीर्थकराभावात् पञ्चमहाविदेहस्थितश्रीमन्दरखामितीर्थकरपरमदेवप्रभृतितीर्थकरैः सह तानेव. पञ्चपरमेष्ठिनो नमस्करोमि । कया । करणभूतया मोक्षलक्ष्मीस्वयंवरमण्डपभूते जिनदीक्षाक्षणे मङ्गलाचारभूतया अनन्तज्ञानादिसिद्धगुणभावनारूपया सिद्धभत्तया, तथैव निर्मलसमाधिपरिणतपरमयोगिगुणभावनालक्षणया योगिभक्त्या चेति । एवं पूर्व विदेहतीर्थकरनमस्कारमुख्यत्वेन गाथा कैसे हैं ? [ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ] ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, और वीर्य ये हैं आचरण जिनके, अर्थात् ज्ञानादिमें सदैव लीन रहते हैं, इस कारण उत्कृष्ट शुद्धोपयोगकी भूमिको प्राप्त हुए हैं । इस गाथामें पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया है ॥२॥ [च पुनः अहं] फिर मैं कुंदकुंदाचार्य [ मानुषे क्षेत्रे वर्तमानान् ] मनुष्योंके रहनेका क्षेत्र जो ढाई द्वीप ( जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, और आधा पुष्करद्वीप) उसमें रहनेवाले जो जो अरहंत हैं, [तान् तान् सर्वानहतः] उन उन सव अरहंतोंको [समकं समकं प्रत्येकमेव प्रत्येकं ] सबको एकही समय अथवा हरएकको - कालने क्रमसे [ वन्दे ] नमस्कार करता हूँ। भावार्थ-इस भरतक्षेत्रमें इस समय " तो , [जूद नहीं हैं, इस कारण जो महाविदेहमें तीर्थकर वर्तमान हैं, उनको मन [ जाने शास्त्रके अनुसार नमस्कार करता हूँ। वह नमस्कार दो तरहका है, द्वैत तथा ran,' जोलाएको नमाकर मस्तकको भूमिमें लगाकर, अनेक स्तुतियोंसे पंचपरमे ह,. 'नकाल मस्कार करना है, वह द्वैत नमस्कार है, और जिस जगह भाव्य- भूढवुद्धिके रक्षा विशेषता ( उत्कटता ) से अत्यंत लीन होकर ये पञ्चपरमेष्ठी' 'यह मैं' -... भवति-] नहीं और परका भेद मिट जावे, उस जगह अद्वैत नमस्कार कहा जाता है। नते. [ तस्य परिणामोंको भाव्य, तथा वचनोंके बोलनेरूप बाह्य भावोंको भावक.कहते पं .
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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