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________________ श्रीमद् राजचन्द्र अवतरण स्थल ..: पृष्ठ-पंक्ति योग असंख जे जिन कह्या, घटमांही रिद्धि दाखी रे । नवपद तेम ज जाणजो, आतमराम छ साखी रे ॥ श्रीपालरास चतुर्थखंड विनयविजय-यशोविजयजी ... ... .३४०-१३; ४९७-४ योगनां वीज इहां ग्रहे, जिनवर शुद्ध प्रणामो रे । भावाचारज सेवना, भव उद्वेग सुठामो रे ।। [आठ योगदृष्टिकी सज्झाय १-८ यशोविजयजी] ३१५-२३ रविकै उद्योत अस्त होत दिन दिन प्रति, अंजुलीकै जीवन ज्यौं जीवन घटतु है; । कालकै ग्रसत छिन-छिन, होत छीन तन, आरेकै चलत मानो काठसौ कटतु है। एते परि मूरख न खोज परमारथको, स्वारथकै हेतु भ्रम भारत ठगतु है; लगौ फिरै लोगनिसौं, पग्यौ परै जोगनिसौं, विषैरस भोगनिसौं, नेकु न हटतु है ।। [समयसार-नाटक, बंधद्वार २६] . ३६४-२७ रूपातीत व्यतीतमल, पूर्णानंदी ईश, चिदानंद ताकुं नमत, विनय सहित निज शीस। [स्वरोदयज्ञान-चिदानंदजी] १६२-१६ रांडी रुए, मांडी रुए, पण सात भरतारवाली तो मोढुज न उघाडे । [लोकोक्ति] .. ४७५-३२ लेवेकों न रही ठोर, त्यागिवेको नाहि और । बाकी कहा उबर्योजु, कारज नवीनो है ।। [समयसार नाटक सर्वविशुद्धिद्वार] ३२३-६ [पुरिमा उज्जुजडा उ] वंक (वक्क) जडा य पच्छिमा । [मज्झिमा उजुषन्नाओ तेण धम्मो दुहाकओ] ___ [उत्तराध्ययनसूत्र-२३-२६] ९९-१९ व्यवहारनी शाळ पांदडे पांदडे परजळी । [ ? ] . ४७१-२० [जोई द्रिग ग्यान चरनातममें बैठी ठौर, भयौ निरदौर पर वस्तुकौं न परसै,] शुद्धता विचारे घ्यावै शुद्धतामें केली करे, शुद्धतामें थिर व्हे अमृतधारा बरस, .. [त्यागि तन कष्ट है सपष्ट अष्ट करमको, करि थान भ्रष्ट नष्ट करै और करसै, : . . . . सोतौ विकलय विजई अलपकाल मांहि, त्यागी भौ विधान निरवान पद परसै] [समयसार नाटक. पृ० ३८२] ३२२-२६; ३९४-१९ श्रद्धा ज्ञान लह्यां छे तो पण, जो नवि जाय पुमायो रे, वंध्य तर उपम ते पामे, संयम ठाण जो नायो रे । गायो रे गायो, भले वीर जगतगुरु गायो॥ .. [संयमश्रेणी स्तवन ४-३ पं० उत्तमविजयजी] ४९६-२३ सकल संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगुण आतमरामी रे, मुख्यपणे जे आतमरामी, ते कहिये निष्कामी रे, .., [आनंदघनचोवीशी, श्रेयांसनाथजिन स्तवन] ५७७-१७; ६१८-३१ सत्यं परं धीमहि . [श्रीमद् भागवत स्कंघ १२, अ० १३, श्लो० १९] ३१३-८ समता, रमता, ऊरघता, ज्ञायकता सुखभास, वेदकता चैतन्यता, ए सब जीवविलास । . . [समयसार नाटक उत्थानिका २६] .. .३७३-३; ३७४-२३ [कुसगो जह ओसविंदुए थोवं चिट्ठइ लंबमाणए । एवं मणुयाण जीवियं] समयं गोयम मा:पमायए ॥ .. .... [उत्तराध्ययनसूत्र १०-२] . . ९७-५
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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