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________________ आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोयी ३ २९ द्वि० आ० अ० १, १९५४ ॐ नमः सर्व विकल्पका, तर्कका त्याग करके मनका वचनका कायाका जय करके इन्द्रियका आहारका निद्राका निर्विकल्परूपसे अंतर्मखवृत्ति करके आत्मध्यान करना । मात्र निर्बाध अनुभवस्वरूपमें लीनता होने देना, दूसरो चिन्तना न करना । जो जो तर्क आदि उठे उन्हें विस्तृत न करते हुए उपशमन करना। ३० वीतरागदर्शन संक्षेप मंगलाचरण-शुद्ध पदको नमस्कार । भूमिका-मोक्ष प्रयोजन । उस दुःखके मिटनेके लिये भिन्न भिन्न मतोंका पृथक्करण कर देखते हुए उनमें वीतराग दर्शन पूर्ण और अविरुद्ध है, ऐसा सामान्य कथन । उस दर्शनका विशेष स्वरूप । उसकी जीवको अप्राप्ति तथा प्राप्तिमें अनास्था होनेके कारण । मोक्षाभिलाषी जीव उस दर्शनकी कैसे उपासना करे । आस्था-उस आस्थाके प्रकार और हेतु । विचार-उस विचारके प्रकार और हेतु । विशुद्धि-उस विशुद्धिके प्रकार और हेतु । मध्यस्थ रहनेके स्थान-उसके कारण । धीरजके स्थान-उसके कारण । शंकाके स्थान-उसके कारण । पतित होनेके स्थान-उसके कारण । उपसंहार। आस्था पदार्थका अचिंत्यत्व, बुद्धिमें व्यामोह, कालदोष । धीमद राजचंद्र ग्रंथ समाप्त
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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