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________________ श्रीमद् राजचन्द्र हे जिन वीतराग ! आपको अत्यन्त भक्तिसे नमस्कार करता हूँ । आपने इस पामरपर अनंत अनंत उपकार किया है। हे कुन्दकुन्द आदि आचार्यों ! आपके वचन भी स्वरूपानुसंधान में इस पामरको परम उपकारभूत हुए हैं । इसके लिये मैं आपको अतिशय भक्तिसे नमस्कार करता हूँ । हे श्री सोभाग ! तेरे सत्समागमके अनुग्रहसे आत्मदशाका स्मरण हुआ, उसके लिये तुझे नमस्कार करता हूँ । ८४० २१ [ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ४७] जैसे भगवान जिनेन्द्र निरूपण किया है वैसे ही सर्व पदार्थका स्वरूप है । भगवान जिनेन्द्रका उपदिष्ट आत्माका समाधिमार्ग श्री गुरुके अनुग्रहसे जानकर, परम प्रयत्नसे उसकी उपासना करें । केवल समवस्थित शुद्ध चेतन उस स्वभावका अनुसंधान वह मोक्षमार्ग प्रतीतिरूपमें वह मार्ग जहाँसे शुरू होता है वहाँ सम्यग्दर्शन ।. २२ 'घविहाण विमुक्कं वंदिन सिरिषद्धमाणजिणचंदं । - सिरिवीर जिणं वंदिन, कम्मविवागं समासओ वुच्छं । कोरई जिएण हेऊह, जेणं तो भण्णए कम्मं ॥ कम्मदववाह सम्मं, संजोगो होई जो उ जीवस्स । सो बंघो नायव्वो, तस्स वियोगो भवे मुक्खो ॥ २३ मोक्ष देश आचरणरूप सर्व आचरणरूप अप्रमत्तरूपसे उस आचरणमें स्थिति अपूर्व आत्मजागृति सत्तागत स्यूल कपाय बलपूर्वक स्वरूपस्थिति सत्तागत सूक्ष्म उपशांत क्षोण 11 21 13 13 हेतु द्वारा किया जाता है, उस कर्म कहते हैं । 13. वह वह ३. अपके लिये देखें व्याख्यानसार - २ का आंक ३० । [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ४९] वह वह वह [ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ५१] पंचम गुणस्थानक । षष्ठ गुणस्थानक । सप्तम अष्टम नवमः दशम : एकादशम द्वादशम 11 〃 "1 17 १. यह सम्पूर्ण गाया इस प्रकार है- बंघविहाण विमुक्कं वंदिअ सिरिवद्धमाणजिणचंदं । गई आईसुं वुच्छं, समासत्र बंधसामित्तं । अर्थात् कर्मबंधकी रचनासे रहित श्री वर्धमान जिनको नमस्कार करके गति और चौदह मागंणाओं द्वारा संक्षेपसे बंधस्वामित्वको कहूंगा । २. भावार्य — श्री वीर जिनको नमस्कार करके संक्षेपसे कर्मविपाक नामक ग्रन्थको कहूँगा । जो जीवसे किसी "1
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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