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________________ .८३६ एकांत आत्मवृत्त । एकांत आत्मा । - केवल एक आत्मा. केवल एक आत्मा हो । श्रीमद् राजचन्द्र .. १० 2 . केवल मात्र आत्मा । केवल मात्र आत्मा ही । आत्मा ही । शुद्धात्मा ही । सहजात्मा हो । निर्विकल्प, शब्दातीत सहज स्वरूप आत्मा ही । ११. ७-१२-५४* ३१-११-२२ निद्राकी जय । योगकी जय । आरंभ-परिग्रह विरति । ब्रह्मचर्य में प्रतिनिवास । यों काल बीतने देना योग्य नहीं । प्रत्येक समयको आत्मोपयोगसे उपकारी बनाकर निवृत्त होने देना योग्य है । अहो इस देहकी रचना ! अहो चेतन ! अहो उसका सामर्थ्य ! अहो ज्ञानी ! अहो उनकी गवेषणा ! अहो उनका ध्यान ! अहो उनकी समाधि ! अहो उनका संयम ! अहो उनका अप्रमत्त भाव ! अहो उनको परम जागृति ! अहो उनका वीतराग स्वभाव ! अहो उनका निरावरण ज्ञान ! अहो उनके योगकी शांति ! अहो उनके वचन आदि योगका उदय ! मत हो, अप्रमत्त हो । परम जागृत स्वभावका सेवन कर, परम जागृत स्वभावका सेवन कर । [ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ २७] हे आत्मन् ! यह सब तुझे सुप्रतीत होनेपर भी प्रमत्तभाव क्यों ? मंद प्रयत्न क्यों ? जघन्य मंद जागृति क्यों ? शिथिलता क्यों ? आकुलता क्यों ? अंतरायका हेतु क्या ? १२ तीव्र वैराग्य, परम आर्जव, बाह्याभ्यंतर त्याग । आहारकी जय । आसनकी जय ! [ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ २९] [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३० ] *संवत १९५४, १२वां मास आसोज सुदी ७; ३१वाँ वर्ष ११वाँ मास, २ वाँ दिन । [ जन्म तिथि सं० १९२४, कार्तिक सुदी १५ होनेसे सं० १९५४ आसोज सुदी ७ को ३१वाँ वर्ष, ११वां मास और २२वाँ दिन आता है। ]
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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