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________________ श्रीमद राजचन्द्र मूर्तामूर्तका बंध आज नहीं होता तो अनादिसे कैसे हो सकता है ? वस्तु स्वभाव इस प्रकार अन्यथा कैसे माना जा सकता है ? ध आदि भाव जीव में परिणामीरूपसे हैं या विवर्तरूपसे हैं ? यदि परिणामीरूपसे कहें तो स्वाभाविक धर्म हो जाते हैं, स्वाभाविक धर्मका दूर होना कहीं भी अनुभव में नहीं आता ।. '. यदि विवर्तरूपसे समझें तो जिस प्रकारसे जिनेन्द्र साक्षात् बंध कहते हैं, उस तरह मानने से विरोध आना सम्भव है । ८३०: ७८ जिनेन्द्रका अभिमत केवलदर्शन और वेदांतका अभिमत ब्रह्म इन दोनोंमें क्या भेद हैं ? ७९ . [संस्मरण] - पोथी १, पृष्ठ १७० ] ८० जिनेन्द्र अभिमतसे । आत्मा असंख्यातं प्रदेशी (?), संकोच - विकासका भाजन, अरूपी, लोकप्रमाण प्रदेशात्मक । :. [ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १७१] [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १७१] जिन मध्यम परिमाणका नित्यत्व, क्रोध आदिका पारिणामिकत्व (?) आत्मामें कैसे घटित हो ? कर्मबंधका हेतु आत्मा है या पुद्गल है ? या दोनों हैं ? अथवा इससे भी कोई अन्य प्रकार है ? मुक्तिमें आत्मघन ? द्रव्यका गुणसे अतिरिक्तत्व क्या है ? सब गुण मिलकर एक द्रव्य, या उसके बिना द्रव्यका कुछ दूसरा विशेष स्वरूप है ? सर्व द्रव्यके वस्तुत्व, गुणको निकाल कर विचार करें तो वह एक है या नहीं ? आत्मा- गुणी है और ज्ञान गुण है यों कहनेसे आत्माका: कथंचित् ज्ञानरहित होना ठीक है या नहीं ? यदि ज्ञानरहित आत्मत्वका स्वीकार करें तो वह क्या जड हो जाता है ? चारित्र, वीर्य आदि गुण कहें तो उनकी ज्ञानसे भिन्नता होनेसे वे जड सिद्ध हो, इसका समाधान किस प्रकारसे घटित होता है ? अभव्यत्व पारिणामिकभाव से किसलिये घटित हो ? धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और जीवको द्रव्य-दृष्टिसे देखें तो एक वस्तु है या नहीं ? द्रव्यत्व क्या है ? धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशके स्वरूपका विशेष प्रतिपादन किस तरह हो सकता है ? लोक असंख्यातप्रदेशी और द्वीप समुद्र असंख्यात है, इत्यादि विरोधका समाधान किस तरह है ? आत्मामें पारिणामिकता ? मुक्तिमें भी सब पदार्थोंका प्रतिभासित होना ? अनादिअनंतका ज्ञान किस तरह हो सकता है ? ८१ [ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १७३] वेदांत एक आत्मा, अनादि माया ओर बंध मोक्षका प्रतिपादन, यह आप कहते हैं, परन्तु यह घटित नहीं हो सकता। आनंद और चैतन्यमें श्री कपिलदेवजीने विरोध कहा है, इसका समाधान क्या है ? यथायोग्य समाधान वेदांत में देखने में नहीं आता । आत्माको नाना माने बिना बंध एवं मोक्ष हो ही नहीं सकते । वे तो हैं, 'ऐसा होनेपर भी उन्हें कल्पित कहने से उपदेश आदि कार्य करनेयोग्य नहीं ठहरते । विधान
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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