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________________ ८०४ श्रीमद् राजचन्द्र २ जोवके अस्तित्वका तो किसी कालमें भी संशय प्राप्त नहीं होता। जोवको नित्यताका, त्रिकाल-अस्तित्वका किसी कालमें भी संशय प्राप्त नहीं होता। जीवकी चेतना एवं त्रिकाल-अस्तित्वमें कभी भी संशय प्राप्त नहीं होता। उसे किसी भी प्रकारसे वन्धदशा है, इस वातमें भी कभी भी संशय प्राप्त नहीं होता। उस बंधकी निवृत्ति किसी भी प्रकारसे निःसंशय घटित होती है, इस विषयमें कभी भी संशय प्राप्त नहीं होता। मोक्षपद है इस वातका कभी भी संशय नहीं होता। . . . २. इस जगतके पदार्थोंका विचार करनेसे वे सब नहीं परन्तु उनमेंसे जिन्हें इस जीवने अपना माना है वे भी इस जीवके नहीं हैं अथवा उससे पर है, इत्यादि । जैसे कि१. कुटुम्ब और सगे-संबंधी, मित्र, शत्रु आदि मनुष्य-वर्ग । २. नौकर, चाकर, गुलाम आदि मनुष्य-वर्ग । ३. पशु-पक्षी आदि तिर्यंच । ४. नारकी, देवता आदि। ५. पाँचों प्रकारके एकेंद्रिय । ..... ६. घर, जमीन, क्षेत्र आदि, गाँव, जागीर आदि, तथा पर्वत आदि। .. ७. नदी, तालाब, कुआँ, वावड़ी, समुद्र आदि। . ८. हरेक प्रकारका कारखाना आदि । १० अव कुटुम्ब और सगेके सिवाय स्त्री, पुत्र आदि जो अति समीपके हैं अथवा जो अपनेसे उत्पन्न हुए हैं वे भी। ११. इस तरह सबको वरतरफ करनेसे अंतमें जो अपना शरीर कहा जाता है उसके लिये विचार किया जाता है १. काया, वचन और मन ये तीन योग और इनकी क्रिया । । २. पाँच इंद्रिय आदि। .. ३. सिरके वालोंसे लेकर पैरके नख तकका प्रत्येक अवयव जैसे कि४. सभी स्थानोंके बाल, चर्म (चमड़ी), खोपड़ी, भेजा, मांस, लहू, नाड़ी, हड्डी, सिर, कपाल, कान, आँख, नाक, मुख, जिह्वा, दांत, गला, होंठ, ठोड़ी, गरदन, छाती, पीठ, पेट, रीढ़, कमर, गुदा, चूतड़, लिंग, जाँघ, घुटना, हाय, वाहु, कलाई, कुहनी, टखना, चपनी, एड़ीके नीचेका भाग, नख इत्यादि अनेक अवयव अर्थात् विभाग । उपर्युक्तमें से एक भी इस जीवका नहीं है, फिर भी अपना मान बैठा है, वह सुधरनेके लिये अथवा उससे जीवको व्यावृत्त करनेके लिये मात्र मान्यताको भूल है, वह सुधारनेसे ठीक हो सकती है । वह भूल कैसे हुई है ? उसका विचार करनेसे पता चलता है कि वह भूल राग, द्वेष और अज्ञानसे हुई है। तो उन राग आदिको दूर करें । वे कैसे दूर हों ? ज्ञानसे । वह ज्ञान किस तरह प्राप्त हो ? प्रत्यक्ष सद्गुरुको अनन्य भक्तिकी उपासना करनेसे तया तीन योग और आत्माका अर्पण करनेसे वह ज्ञान प्राप्त होता है। यदि वे प्रत्यक्ष सद्गुरु विद्यमान हो तो क्या करें ? तो उनकी आज्ञानुसार वर्तन करें। . . परम करुणाशील, जिनके प्रत्येक परमाणुसे दयाका झरना बह रहा है, ऐसे निष्कारण दयालुको अत्यन्त भक्तिसहित नमस्कार करके आत्माक साथ संयुक्त हुए पदार्थोका विचार करते हुए भी अनादिकालके देहात्मबुद्धिके
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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