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________________ व्याख्यानसार-२ ७९१ का बंध होता है, वह उदयमें आता है। परमाणु यदि सिरमें इकट्ठे हों तो वहाँ वे सिरदर्दके आकारसे परिणमन करते हैं, आँखमें आँखकी वेदनाके आकारसे परिणमन करते हैं। ६. वहीका वही चैतन्य स्त्रीमें स्त्रीरूपसे और पुरुषमें पुरुषरूपसे परिणमन करता है; और भोजन भी तथाप्रकारके ही आकारसे परिणमन कर पुष्टि देता है।'' ७. शरीरमें परमाणुसे परमाणुको लड़ते हुए. किसीने नहीं देखा; परंतु उसका परिणामविशेष जाननेमें आता है । बुखारकी दवा बुखारको रोकती है, इसे हम जान सकते हैं; परंतु भीतर क्या क्रिया हुई, उसे नहीं जान सकते। इस दृष्टांतसे. कर्मबंध होता हुआ देखनेमें नहीं आता, परंतु उसका विपाक देखनेमें आता है। ८. अनागार = जिसे व्रतमें अपवाद नहीं। .. ९. अणगार = घर रहित। ... १०. समिति = सम्यक् प्रकारसे जिसकी मर्यादा है उस मर्यादासहित, यथास्थितरूपसे प्रवृत्ति करनेका ज्ञानियोंने जो मार्ग कहा है उस मार्गके अनुसार मापसहित प्रवृत्ति करना । :... ११. सत्तागत = उपशम । १२. श्रमण भगवान = साधु भगवान अथवा मुनि भगवान । १३. अपेक्षा = जरूरत, इच्छा ।। १४. सापेक्ष - दूसरे कारणको, हेतुकी जरूरतको इच्छा करना। .... १५. सापेक्षत्व अथवा अपेक्षासे = एक दूसरेको लेकर । मोरवी, आषाढ वदी ३, रवि, १९५६ १. अनुपपन्न = असंभवित; सिद्ध होने योग्य नहीं। रातमें श्रावकाश्रयी, परस्त्रीत्याग तथा अन्य अणुव्रतोंके विषयमें।। १. जब तक मृषा और परस्त्रीका त्याग न किया जाये, तब तक सब क्रियाएँ निष्फल हैं; तब तक आत्मामें छलकपट होनेसे धर्म परिणमित नहीं होता। ... २..धर्म पानेकी यह प्रथम भूमिका है। .. ३. जब तक मृषात्याग और परस्त्रीत्यागरूप गुण न हों तब तक वका और श्रोता नहीं हो सकते। ४. मृषा दूर हो जानेसे बहुतसी असत्य प्रवृत्ति कम होकर निवृत्तिका प्रसंग आता है। सहज बातचीत करते हुए भी विचार करना पड़ता है। ५. मृषा बोलनेसे ही लाभ होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है । यदि ऐसा होता हो तो सच बोलनेवालोंकी अपेक्षा जगतमें जो असत्य बोलनेवाले बहुत होते हैं, उन्हें अधिक लाभ होना चाहिये, परंतु वैसा कुछ देखने में नहीं आता; तथा असत्य बोलनेसे लाभ होता हो तो कर्म एकदम रद्द हो जायेंगे और शास्त्र भी झूठे सिद्ध होंगे। ६. सत्यकी ही जय है । पहले मुश्किली महसूस होती है, परंतु पीछेसे सत्यका प्रभाव होता है और उसका असर दूसरे मनुष्य तथा संबंध आनेवालोंपर होता है। ७. सत्यसे मनुष्यका आत्मा स्फटिक जैसा मालूम होता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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