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________________ श्रीमद राजचन्द्र २. ‘पातंजलयोग' के कर्ताको सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हुआ था; परन्तु हरिभद्रसूरिने उन्हें मार्गानुसारी माना है । ७८४ ३. हरिभद्रसूरिने उन दृष्टियों का अध्यात्मरूप से संस्कृतमें वर्णन किया है, और उसपर से यशोविजयजी महाराजने पद्यरूप से गुजरातीमें लिखा है । ४. 'योगदृष्टि' में छहों भाव - औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, पारिणामिक, और सान्निपातिक – का समावेश होता है । ये छः भाव जीवके स्वतत्त्वभूत हैं । ५. जब तक यथार्थ ज्ञान नहीं होता तब तक मौन रहना ठीक है । नहीं तो अनाचार दोष लगता है । इस विषय में 'उत्तराध्ययनसूत्र' में 'अनाचार' नामक अधिकार है । ( अध्ययन- छठा): ६. ज्ञानी के सिद्धांत में अंतर नहीं हो सकता । ७. सूत्र आत्माका स्वधर्मं प्राप्त करनेके लिये बनाये गये हैं; परन्तु उनका रहस्य, यथार्थ समझ में नहीं आता, इससे अंतर लगता है । ८. दिगम्बरके तीव्र वचनोंके कारण कुछ रहस्य समझा जा सकता है । श्वेताम्बरकी शिथिलता के कारण रस ठंडा होता गया । ९. ‘शाल्मलि वृक्ष' नरकमें नित्य असातारूपसे है । वह वृक्ष शमी वृक्षसे मिलता-जुलता होता है भावसे संसारो आत्मा उस वृक्षरूप है । आत्मा परमार्थसे, उस अध्यवसाय को छोड़नेसे, नंदनवनके समान होता है । :. १०. जिनमुद्रा दो प्रकारको है: - कायोत्सर्ग और पद्मासन । प्रमाद दूर करनेके लिये दूसरे अनेक - आसन किये हैं । परन्तु मुख्यतः ये दो आसन हैं । ११. 'प्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्नं वदनकमलसंकः कामिनी संगशून्यः । करयुगमपि यत्ते शस्त्रसंबंधवंध्यं तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ॥ १२. चैतन्यका लक्ष्य करनेवालेकी बलिहारी है ! १३. तीर्थ = तरनेका मार्ग । १४. अरनाथ प्रभुकी स्तुति महात्मा आनंदघनजीने की है। श्री आनंदघनजीका दूसरा नाम 'लाभानंदजी' था । वे तपगच्छमें हुए हैं । १५. वर्तमानमें लोगोंका ज्ञान और शांति के साथ सम्बन्ध नहीं रहा; मताचार्यने मार डाला है । आशय आनंदघन तणो, अति गंभीर उदार । १६. बालक बांय पसारीने, कहे उदधि विस्तार ॥" १७. ईश्वरत्व तीन प्रकारसे जाना जाता है : - ( १ ) जड़ जड़ात्मकता से रहता है । (२) चैतन्य - संसारी जीव विभावात्मकता से रहते हैं । (३) सिद्ध - शुद्ध चैतन्यात्मकता से रहते हैं । १० मोरवी, आषाढ़ सुदी १३, मंगल, १९५६ १. 'भगवती आराधना' जैसी पुस्तकें मध्यम एवं उत्कृष्ट भावके महात्माओंके तथा मुनियोंके ही योग्य हैं । ऐसे ग्रन्थ उससे कम पदवी, योग्यतावाले साधु तथा श्रावकको देनेसे वे कृतघ्नी होते हैं; उन्हें उनसे उलटी हानि होती है। सच्चे मुमुक्षुओंको ही ये लाभकारी हैं । १. अर्थके लिये देखें उपदेश नोंध २२ । १२. भावार्थ - योगीवर श्री आनंदघनजीका आशय अति गम्भीर और उदार है, उसे पूरी तरहसे समझना असंभवसा है; जैसे कि बालक बाहु फैलाकर सागर के विस्तारका मात्र संकेत करता है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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