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________________ व्याख्यानसार-२ ७८१. : फिर वह सूक्ष्म निगोदमें, जाये तो भी वह 'व्यवहारराशि' । अनादिकालसे सूक्ष्म निगोदमें से निकल कर कभी सपर्यायको प्राप्त नहीं किया है वह 'अव्यवहारराशि'! . ... . . . . . . . . . . . . . . . . . तीन प्रकार -संयत; असंयत और संयतासंयत अथवा स्त्री पुरुष और नपुंसक ::::::: चार प्रकार :-गतिकी अपेक्षासे । .... पाँच प्रकार :-इंद्रियकी अपेक्षासे । ........ ..... . . : ... ... ... ... छः प्रकार :-पृथ्वी, अप्, तेजस, वायु, वनस्पति और वसः। ............. ....... ... .. सात प्रकार :-कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म, शुक्ल और अलेशी। (चौदहवें गुणस्थानकवाले जीव लेना परन्तु सिद्ध न लेना, क्योंकि संसारी जीवकी व्याख्या है.।)...... ... आठ प्रकार :-अंडज, पोतज, जरायुज, स्वेदज, रसज, संमूर्छन, उद्भिज़ और उपपाद । .. नौ प्रकार :-पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । दस प्रकार :-पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रिय।.. ....ग्यारह प्रकार :-सूक्ष्म, बादर, तीन विकलेन्द्रिय, और पंचेन्द्रियमें जलचर, स्थलचर, नभश्चर, मनुष्य, देवता और नारक ।। . : ... : बारह प्रकार :-छकायके पर्याप्त और अपर्याप्त । .. तेरह प्रकार :-उपर्युक्त बारह भेद संव्यवहारिक तथा एक असंव्यवहारिक (सूक्ष्म निगोदका)। चौदह प्रकार :-गुणस्थानक-आश्रयी, अथवा सूक्ष्म, वादर, तीन विकलेन्द्रिय, तथा संज्ञी, असंज्ञी इन सातके पर्याप्त और अपर्याप्त । . इस तरह वुद्धिमान पुरुषोंने सिद्धांतके अनुसार जीवके अनेक भेद (विद्यमान भावोंके भेद) कहे हैं। .: .. ... ... ... . . ... ..६. . . . . मोरबी, आषाढ़ सुदी.९, शुक्र, १९५६ .. . 'जातिस्मरणज्ञान के विषयमें जो शंका रहती है, उसका समाधान इस प्रकारसे होगा :-जैसे : बाल्यावस्था में जो कुछ देखा हो अथवा अनुभव किया हो उसका स्मरण वृद्धावस्थामें किसी-किसीको होता है और किसी-किसीको नहीं होता, वैसे ही पूर्वभवका भान किसी-किसीको रहता है और किसी-किसीको नहीं रहता। न रहनेका कारण यह है कि पूर्वदेहको छोड़ते समय बाह्य पदार्थोंमें जीव आसक्त रह कर मरण करता है और नयी देह प्राप्त कर उसीमें आसक्त रहता है, उसे पूर्वपर्यायका भान नहीं रहता। इससे उलटी रीतसे प्रवृत्ति करनेवालेको अर्थात् जिसने अवकाश रखा हो उसे पूर्वभव अनुभवमें आता है। २. एक सुन्दर वनमें आपके आत्मामें क्या निर्मलता है, जिसे जांचते हुए आपको अधिकसे अधिक स्मृति होती है या नहीं ? आपकी शक्ति भी हमारी शक्तिकी तरह स्फुरायमान क्यों नहीं होती ? उसके कारण विद्यमान हैं । प्रकृतिवंधमें उसके कारण बताये हैं । 'जातिस्मरणज्ञान' मतिज्ञानका भेद है। एक मनुष्य वीस वर्षका और दूसरा मनुष्य सौ वर्षका होकर मर जाये, उन दोनोंने पाँच वर्षको उमरमें जो देखा या अनुभव किया हो वह यदि अमुक वर्ष तक स्मृतिमें रह सकता हो तो बीस वपमें मर जाये उसे इक्कीसवें वर्ष में फिरसे जन्म लेनेके बाद स्मृति होनी चाहिये परन्तु वैसा होता नहीं है। कारण कि पूर्वपर्यायमें उसके स्मतिके साधन पर्याप्त न होनेसे, पूर्वपर्यायको छोड़ते समय मृत्यु आदि वेदनाके कारण, नयी देह धारण करते समय गर्भावासके कारण, बचपन में मूढ़ताके कारण और वर्तमान देहमें अति लीनताके कारण पूर्वपर्यायकी स्मृति करनेका अवकाश ही नहीं मिलता; तथापि जिन तरह गर्भावास तथा बचपन स्मृतिमें न रहे, इससे वे नहीं थे ऐसा नहीं कह सकते; उसी तरह उपर्युक्त कारणोंसे पूर्वपर्याय
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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