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________________ ७७४ श्रीमद् राजचन्द्र २१७. भासन शब्दमें जानना और देखना दोनोंका समावेश होता है। २१८. जो केवलज्ञान है वह आत्मप्रत्यक्ष है अथवा अतींद्रिय है। जो अंधता है वह इन्द्रिय द्वारा देखनेका व्याघात है । वह व्याघात अतींद्रियको बाधक होना संभव नहीं है । जब चार घनघाती कर्मोंका नाश होता है तब केवलज्ञान उत्पन्न होता है। उन चार घनघातियोंमें एक दर्शनावरणीय है। उसकी उत्तर प्रकृतिमें एक चक्षुदर्शनावरणीय है उसका क्षय हो नेके बाद केवलज्ञान उत्पन्न होता है । अथवा जन्मांधता या अंधताका आवरण क्षय होनेसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है। अचक्षुदर्शन आँखके सिवाय दूसरी इंद्रियों और मनसे होता है। उसका भी जब तक आवरण होता है तब तक केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसलिये जैसे चक्षुके लिये है वैसे दूसरी इंद्रियोंके लिये भी मालूम होता है। २१९. ज्ञान दो प्रकारसे बताया गया है। आत्मा इंद्रियोंकी सहायताके बिना स्वतंत्ररूपसे जानेदेखे वह आत्मप्रत्यक्ष है । आत्मा इंद्रियोंकी सहायतासे अर्थात् आँख, कान, जिह्वा आदिसे जाने-देखे वह इंद्रियप्रत्यक्ष है । व्याघात और आवरणके कारणसे इंद्रियप्रत्यक्ष न हो तो इससे आत्मप्रत्यक्षको बाध नहीं है। जब आत्माको प्रत्यक्ष होता है, तब इंद्रियप्रत्यक्ष स्वयमेव होता है अर्थात् इंद्रियप्रत्यक्षके आवरणके दूर होनेपर ही आत्मप्रत्यक्ष होता है। २२०, आज तक आत्माका अस्तित्व भासित नहीं हुआ। आत्माके अस्तित्वका भास होनेसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है । अस्तित्व सम्यक्त्वका अंग है। अस्तित्व यदि एक बार भी भासित हो तो वह दृष्टिके सामने रहा करता है, और सामने रहनेसे आत्मा वहाँसे हट नहीं सकता। यदि आगे बढ़े तो भी पैर पीछे पड़ते हैं, अर्थात् प्रकृति जोर नहीं मारती । एक बार सम्यक्त्व आनेके बाद वह पड़े तो फिर ठिकानेपर आ जाता है। ऐसा होनेका मूल कारण अस्तित्वका भासना है। यदि कदाचित् अस्तित्वकी बात कही जाती हो तो भी वह कथन मात्र है, क्योंकि सच्चा अस्तित्व भासित नहीं हुआ। २२१. जिसने बड़का वृक्ष न देखा हो उसे यह कहा जाये कि इस राईके दाने जितने बड़के बीजमेंसे, लगभग एक मीलके विस्तारमें समाये इतना बड़ा वृक्ष हो सकता है तो यह बात उसके माननेमें नहीं आती और कहनेवालेको अन्यथा समझ लेता है। परन्तु जिसने बड़का वृक्ष देखा है और जिसे इस बातका अनुभव है उसे बड़के वीजमें शाखा, मूल, पत्ते, फल, फूल आदि वाला बड़ा. वृक्ष समाया हुआ है यह बात मानने में आती है, प्रतीत होती है। पुद्गल रूपी पदार्थ है, मूर्तिमान है. उसके एक स्कंधके एक भागमें अनंत भाग हैं यह बात प्रत्यक्ष होनेसे मानी जाती है; परन्तु उतने ही भागमें जीव अरूपी एवं अमूर्त होनेसे अधिक समा सकते हैं । परंतु वहाँ अनंतके बदले असंख्यात कहा जाये तो भी माननेमें नहीं आता, यह आश्चर्यकारक बात है। इस प्रकार प्रतीत होनेके लिये अनेक नय-रास्ते बताये गये हैं, जिससे किसी तरह यदि प्रतीति हो गयी तो बड़के बीजकी प्रतीतिको भांति मोक्षके बीजकी सम्यक्त्वरूपसे प्रतीति होती है; मोक्ष है यह निश्चय हो जाता है, इसमें कुछ भी शक नहीं है। . .
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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