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________________ ७६२ श्रीमद राजचन्द्र क्रियासे होनेवाला बंध मुख्यतः पाँच प्रकारका है १ मिथ्यात्व २ अविरति ३ कषाय . ४ प्रमाद ५ योग : .. १०५. जब तक मिथ्यात्वका अस्तित्व हो तब तक अविरतिपना निर्मूल नहीं होता अर्थात् नष्ट नहीं होता, परन्तु यदि मिथ्यात्व दूर हो जाये तो अविरतिपना दूर होना चाहिये, यह निःसंदेह है; क्योंकि मिथ्यात्वसहित विरतिपनेको अपनानेसे मोहभाव नहीं जाता। जब तक मोहभाव विद्यमान है तब तक अभ्यन्तर विरतिपना नहीं होता, और मुख्यतासे रहे हुए मोहभावका नाश हो जानेसे अभ्यन्तर अविरतिपन नहीं रहता, और यदि वाह्य विरतिपना अपनाया न गया हो तो भी यदि अभ्यंतर हो तो सहज ही वाहर आ जाता है। १०६. अभ्यंतर विरतिपना प्राप्त होनेके पश्चात् और उदयाधीन बाह्य विरतिपना न अपना सके तो भी, जब उदयकाल सम्पूर्ण हो जाये तब सहज ही विरतिपना रहता है, क्योंकि अभ्यंतर विरतिपन पहलेसे ही प्राप्त है; जिससे अब अविरतिपन है नहीं, कि वह अविरतिपनेकी क्रिया कर सके। १०७. मोहभावके कारण ही मिथ्यात्व है। मोहभावका क्षय हो जानेसे मिथ्यात्वका प्रतिपक्षी सम्यक्त्व भाव प्रगट होता है । इसलिये वहाँ मोहभाव कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं होता। १०८. यदि ऐसी आशंका की जाये कि पाँच इंद्रियाँ और छठा मन, तथा पाँच स्थावरकाय और छठी त्रसकाय, यों वारह प्रकारसे विरति अपनायी जाये तो लोकमें रहे हुए जीव और अजीव नामकी राशिके जो दो समूह हैं उनमेंसे पाँच स्थावरकाय और छठी त्रसकाय मिलकर जीवराशिकी विरति हुई; परन्तु लोकमें भटकानेवाली अजीवराशि जो जीवसे भिन्न है, उसकी प्रीतिकी निवृत्ति इसमें नहीं आती, तब तक विरति किस तरह मानी जा सकती है ? इसका समाधान यह है कि पाँच इंद्रियाँ और छठे मनसे जो विरति करना है, उसके विरतिपनमें अजीवराशिकी विरति आ जाती है। . . १०९. पूर्वकालमें इस जीवने ज्ञानीकी वाणी कभी निश्चयरूपसे नहीं सुनी अथवा वह वाणी सम्यक् प्रकारसे शिरोधार्य नहीं की, ऐसा सर्वदर्शीने कहा है। ११०. सद्गुरु द्वारा उपदिष्ट यथोक्त संयमको पालते हुए अर्थात् सद्गुरुको आज्ञासे चलते हुए पापसे विरति होती है और अभेद्य संसारसमुद्र तरा जाता है। १११. वस्तुस्वरूप कितने ही स्थानकोंमें आज्ञासे प्रतिष्ठित है, और कितने ही स्थानकोंमें सद्विचारपूर्वक प्रतिष्ठित है, परन्तु इस दुःषमकालकी इतनी अधिक प्रबलता है कि इसके बादके क्षणमें भी विचारपूर्वक प्रतिष्ठितके लिये जीव किस तरह प्रवृत्ति करेगा यह जाननेकी इस कालमें शक्ति दिखाई नहीं देती, इसलिये वहाँ आज्ञापूर्वक प्रतिष्ठित रहना ही योग्य है। ११२. ज्ञानीने कहा है कि 'समझें! क्यों नहीं समझते ? फिर ऐसा अवसर आना दुर्लभ है !' ११३. लोकमें जो पदार्थ है उनके धर्मोंका, देवाधिदेवने अपने ज्ञानमें भासनेसे यथावत् वर्णन किया है। पदार्थ रन धर्मोंसे बाहर जाकर प्रवृत्ति नहीं करते; अर्थात् ज्ञानो महाराजने उन्हें जिस तरह प्रकाशित किया है उनसे भिन्न प्रकारसे वे प्रवर्तन नहीं करते । इसलिये ऐसा कहा है कि वे ज्ञानीकी आज्ञाके अनुसार प्रवर्तन करते हैं । क्योंकि ज्ञानीने पदार्थों के धर्म यथावत् हो कहे हैं।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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