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________________ श्रीमद राजचन्द्र मेरु आदिका वर्णन जानकर उसकी कल्पना, चिंता करता है, मानो मेरुका ठेका न लेना हो ? जानना तो ममता छोड़नेके लिये है । जो विषको जानता है वह उसे नहीं पीता । विषको जानकर पीता है तो वह अज्ञान है । इसलिये जानकर छोड़नेके लिये ज्ञान कहा है । ....... जो दृढ़ निश्चय करता है कि चाहे जो करूँ, विष पीऊँ, पर्वतसे गिरू, कुएँमें पड़ें परन्तु जिससे कल्याण हो वही करूँ । उसका ज्ञान सच्चा है । वही तरनेका कामी कहा जाता है ७४८ देवताको हीरामाणिक आदि परिग्रह अधिक है । उसमें अतिशय ममता-मूर्छा होनेसे वहाँसे च्यवनकर वह हीरा आदिमें एकेंद्रियरूपसे जन्म लेता है । जगतका वर्णन करते हुए, जीव अज्ञानसे अनंतबार उसमें जन्म ले चुका है, उस अज्ञानको छोड़नेके लिये ज्ञानियोंने यह वाणी कही है। परन्तु जगतके वर्णनमें ही जीव फँस जाये तो उसका कल्याण ि तरह होगा ! वह तो अज्ञान ही कहा जाता है । जिसे जानकर जीव अज्ञानको छोड़नेका उपाय करता है वह ज्ञान हैं । अपने दोष दूर हों ऐसे प्रश्न करे तो दोष दूर होनेका कारण होता है । जीवके दोष कम हों, दूर 'हों तो मुक्ति होती है । 3 Fo जगतकी बात जानना इसे शास्त्रमें मुक्ति नहीं कहा है । परन्तु निरावरण होना ही मोक्ष है ।...... पाँच वर्षोंसे एक बीड़ी जैसा व्यसन भी प्रेरणा किये बिना छोड़ा नहीं जा सका । हमारा उपदेश तो उसीके लिये है जो तुरन्त ही करनेका विचार रखता हो । इस कालमें बहुतसे जीव विराधक होते हैं और उनपर नहीं जैसा ही संस्कार पड़ता है । P *. 2 ऐसी बात तो सहज ही समझने जैसी है, और तनिक विचार करें तो समझमें आ सकती है कि जीव मन, वचन और कायाके तीन योगसे रहित है, सहजस्वरूप है । जब ये तीन योग तो छोड़ने हैं. ब “इन बाह्य पदार्थोंमें जीव क्यों आग्रह करता होगा ? यह आश्चर्य होता है ! जीव जिस जिस कुल में उत्पन्न होता है उस उसका आग्रह करता है, जोर करता है। वैष्णवके यहाँ जन्म लिया होता तो उसका आग्रह :- हो जाता; यदि तपा में हो तो तपाका आग्रह हो जाता है। जीवका स्वरूप ढूंढिया नहीं, तपा नहीं, कुल नहीं, जाति नहीं, वर्ण नहीं । ऐसी ऐसी कुकल्पना कर करके आग्रहपूर्वक आचरण करवाना यह है ! जीवको लोगोको अच्छा दिखाना ही बहुत भाता है और इससे जीव वैराग्य-उपशमके जाता है। अब आगेसे और पहले कहा है, 'कि दुराग्रहके लिये जैनशास्त्र मत पढ़ना ।" जिससे वैराग्यउपशम बढ़े वही करना। इनमें ( मागधी गाथाओं में ) कहाँ ऐसी बात है कि इसे ढूँढिया या पा मानना ? उनमें ऐसी बात होती ही नहीं है । .. अज्ञान 2. (त्रिभोवनको) जीवको उपाधि बहुत है । ऐसा योग– मनुष्यभव आदि साधन मिले हैं और जीव विचार नहीं करेगा तो क्या यह पशुके देहमें विचार करेगा ? कहाँ करेगा ? जीव ही परमाधामी (यम) जैसा है, और यम है, क्योंकि नरकगतिमें जीव जाता है. उसका कारण जीव यहीं खड़ा करता है-1 जीव पशुको जातिके शरीरोंके दुःख प्रत्यक्ष देखता है, जरा विचार आता है और फिर भूल जाता है । लोग प्रत्यक्ष देखते हैं कि यह मर गया, मुझह एसी प्रत्यक्षता है; तथापि शास्त्रमें उस व्याख्याको दृढ़ करनेके लिये वारंवार वही बात कही है। शास्त्र तो परोक्ष है और यह तो प्रत्यक्ष है, परन्तु जीव फिर भूल जाता है, इसलिये वहोको वही बात कही है । "
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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