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________________ उपदेश छाया ७४३. निष्कारण है. तथा उन्हें परायी निर्जरासे अपना कल्याण नहीं करना है। उनका कल्याण तो हो चुका हो है। वे तीन लोकके नाथ तो तरकर ही बैठे हैं । सत्पुरुष या समकितीको भी ऐसी (सकाम) उपदेश देनेकी इच्छा नहीं होती । वे भी निष्कारण दयाके लिये उपदेश देते हैं। महावीरस्वामी गृहवासमें रहते हुए भी त्यागी जैसे थे। : .. हजारों वर्षके संयमी भी जैसा वैराग्य नहीं रख सकते. वैसा वैराग्य भगवानका था। जहाँ जहाँ भगवान रहते हैं, वहाँ वहाँ सभी प्रकारके अर्थ भी रहते हैं। उनकी वाणी उदयानुसार शांति पूर्वक परमार्थहेतुसे निकलती है अर्थात् उनव वाणी कल्याणके लिये ही हैं । उन्हें जन्मसे मति, श्रुत, अवधि ये तीन ज्ञान थे । उस पुरुषके गुणगान करनेसे अनंत निर्जरा होती है। ज्ञानीकी बात अगम्य है । उनका अभिप्राय मालूम नहीं होता। ज्ञानीपुरुषकी सच्ची खूबी यह है कि उन्होंने अनादिसे अटल ऐसे रागद्वेष तथा अज्ञानको छिन्न भिन्न कर डाला है। यह भगवानको अनंत कृपा है। उन्हें पच्चीस सौ वर्ष हो गये फिर भी उनकी दया आदि आज भी विद्यमान है । यह उनका अनंत उपकार है । ज्ञानी आडंबर दिखानेके लिये व्यवहार नहीं करते । वे सहज स्वभावसे उदासीन भावसे रहते हैं। ....... .. " ज्ञानी रेलगाड़ीमें सेकन्ड क्लासमें बैठे तो वह देहकी साताके लिये नहीं । साता लगे तो थर्ड क्लाससे भी नीचेके क्लासमें बैठे, उस दिन आहार न ले; परन्तु ज्ञानीको देहका ममत्व नहीं है । ज्ञानी व्यवहारमें संगमें रहकर, दोषके पास जाकर दोषका छेदन कर डालते हैं, जब कि अज्ञानी जीव संगका त्याग करके भी उस स्त्री आदिके दोष छोड़ नहीं सकता । ज्ञानी तो दोष, ममत्व और कषायको उस संगमें रहकर भी नष्ट करते हैं। इसलिये ज्ञानीकी बात अद्भत है। संप्रदायमें कल्याण नहीं है, अज्ञानीके संप्रदाय होते हैं । ढूंढिया क्या ? तपा क्या ? जो मूत्तिको नहीं मानता और मुँहपत्ती बाँधता हैं वह दूँढिया, जो मूर्तिको मानता है और मुंहपत्ती नहीं बाँधता वह तपा। यों कहीं धर्म होता है ! यह तो ऐसी बात है कि लोहा स्वयं तरता नहीं और दूसरेको तारता नहीं। वीतरागका मार्ग तो अनादिका है। जिसके राग, द्वेष और अज्ञान दूर हो गये उसका कल्याण; वाकी अज्ञानी कहे कि मेरे धर्मसे कल्याण है तो उसे नहीं मानना; यों कल्याण नहीं होता। ढूंढियापन या तपापन माना तो कषाय आता है । तपा ढूंढियाके साथ बैठा हो तो कषाय आता है, और ढूंढिया तपाके साथ बैठा हो तो कषाय आता है। इन्हें अज्ञानी समझें। दोनों नासमझसे संप्रदाय बनाकर कर्म उपार्जन करके भटकते हैं । बोहरेके नाड़े की तरह मताग्रह पकड़ बैठे हैं । मुंहपत्ती आदिका आग्रह छोड़ दें। .. जैनमार्ग क्या है ? राग, द्वेष और अज्ञानका नाश हो जाना। अज्ञानी साधुओंने भोले जीवोंको समझाकर उन्हें मार डालने जैसा कर दिया है। यदि प्रथम स्वयं विचार करे, कि क्या मेरे दोप कम हुए हैं ? तो फिर मालूम होगा कि जैनधर्म तो मेरेसे दूर ही रहा है । जीव विपरोत समझसे अपना कल्याण भल कर दूसरेका अकल्याण करता है । तपा हूँढियाके साधुको और ढूंढिया तपाके साधुको अन्नपानी न देनेके लिये अपने शिष्योंको उपदेश देता है । कुगुरु एक दूसरेको मिलने नहीं देते; एक दूसरेको मिलने दें तव तो कषाय कम हो और निन्दा घटे । जीव निष्पक्ष नहीं रहते । अनादिसे पक्षमें पड़े हुए है, और उसमें रहकर कल्याण भूल जाते हैं। . १. माल भरकर रस्सीसे वांधे हुए छकडेपर एक बोहराजी बैठे हुए थे, उन्हें उकडेवालेने कहा, "रास्ता खराव है इसलिये, बोहराजी, नाड़ा पकड़िये, नहीं तो गिर जायेंगे।" रास्ते में गड्ढा मानेसे धक्का लगा कि वोहराजो नीचे गिर पड़े। छाडेवालेने कहा, "चिताया या ओर नाड़ा क्यों नहीं पकड़ा ?" बोहरात्री बोले, "यह नाड़ा पफड़े रखा है, अभी छोड़ा नहीं" यो फहफर पाजामेका नाड़ा बताया।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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