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________________ ७३४ श्रीमद् राजचन्द्र तदाकार होकर तद्रूप हो जाता है । समकितदृष्टिको बाह्य दुःख आनेपर खेद नहीं होता, यद्यपि वह ऐसी इच्छा नहीं करता कि रोग न आये; परंतु रोग आनेपर उसे रागद्वेष परिणाम नहीं होते। शरीरके धर्म रोग आदि केवलीको भी होते हैं; क्योंकि वेदनीयकर्मको तो सभीको भोगना ही चाहिये । समकित आये बिना किसीको सहजसमाधि नहीं होती। समकित हो जानेसे सहजमें ही समाधि होती है। समकित हो जानेसे सहजमें ही आसक्ति मिट जाती है। बाकी आसक्तिको यों. ही ना कहनेसे वह दूर नहीं होती। सत्पुरुषके वचनके अनुसार, उनकी आज्ञाके अनुसार जो वर्तन करे उसे अंशसे समकित हुआ है। दूसरी सब प्रकारकी कल्पनाएँ छोड़कर, प्रत्यक्ष सत्पुरुषकी आज्ञासे उनके वचन सुनना, उनमें सच्ची श्रद्धा करना और उन्हें आत्मामें परिणमित करना, तो समकित होता है । शास्त्रमें कही हुई महावीरस्वामीको आज्ञासे वर्तन करनेवाले जीव अभी नहीं है, क्योंकि उन्हें हुए २५०० वर्ष हो गये हैं, इसलिये प्रत्यक्ष ज्ञानी चाहिये । काल विकराल है। कुगुरुओंने लोगोंको उलटा मार्ग बताकर बहका दिया है; मनुष्यत्व लूट लिया है; इसलिये जीव मार्गमें कैसे आये ? यद्यपि कुगुरुओंने लूट लिया है परंतु इसमें उन बेचारोंका दोष नहीं है, क्योंकि कुगुरुको भी उस मार्गका पता नहीं है। कुगुरुको किसी प्रश्नका उत्तर न आता हो परन्तु यों नहीं कहता कि 'मुझे नहीं आता'। यदि वैसा कहे तो कर्म थोड़े बाँधे । मिथ्यात्वरूपी तिल्लीकी गाँठ बड़ी है, इसलिये सारा रोग कहाँसे मिटे ? जिसकी ग्रंथि छिन्न हो गई है उसे सहजसमाधि होती है, क्योंकि जिसका मिथ्यात्व छिन्न हुआ, उसकी मूल गाँठ छिन्न हो गयी, और इससे दूसरे गुण प्रगट होते ही हैं। समकित देश चारित्र है; देशसे केवलज्ञान है। शास्त्रमें इस कालमें मोक्षका बिलकुल निषेध नहीं है। जैसे रेलगाड़ीके रास्तेसे जल्दी पहुँचा जाता है, और पगरास्तेसे देर में पहुंचा जाता है; वैसे इस कालमें मोक्षका रास्ता पगरास्ते जैसा हो तो उससे न पहुँचा जाये, ऐसी कुछ बात नहीं है। जल्दी चले तो जल्दी पहुँचे, किन्तु कुछ रास्ता बन्द नहीं है । इस तरह मोक्षमार्ग है, उसका नाश नहीं है। अज्ञानी अकल्याणके मार्गमें कल्याण मानकर, स्वच्छन्दसे कल्पना करके, जीवोंका तरना बन्द करा देता है । अज्ञानीके रागी भोले-भाले जीव अज्ञानीके कहनेके अनुसार चलते हैं, और इस प्रकार कर्मके बाँधे हुए वे दोनों दुर्गतिको प्राप्त होते हैं। ऐसा बखेड़ा जैनमतोंमें विशेष हुआ है। सच्चे पुरुषका बोध प्राप्त होना अमृत प्राप्त होनेके समान है। अज्ञानी गुरुओंने बेचारे मनुष्योंको लूट लिया है । किसी जीवको गच्छका आग्रही बनाकर, किसीको मतका आग्रही बनाकर, जिनसे तरा न जाये ऐसे आलंबन देकर, बिलकुल लूटकर दुविधामें डाल दिया है। मनुष्यत्व लूट लिया है। समवसरणसे भगवानकी पहचान होती है, इस सारी माथापच्चीको छोड़ दे। लाख समवसरण हों, परन्तु ज्ञान न हो तो कल्याण नहीं होता। ज्ञान हो तो कल्याण होता है । भगवान मनुष्य जैसे मनुष्य थे। वे खाते, पीते, बैठते और उठते थे; ऐसा कुछ अंतर नहीं है, अंतर दूसरा ही है। समवसरण आदिके प्रसंग लौकिक भावके हैं। भगवानका स्वरूप ऐसा नहीं है। संपूर्ण ज्ञान प्रगट होनेपर आत्मा नितांत निर्मल होता है, ऐसा भगवानका स्वरूप है। संपूर्ण ज्ञानका प्रगट होना, वही भगवानका स्वरूप है। वर्तमानमें भगवान होते तो आप न मानते। भगवानका माहात्म्य ज्ञान है। भगवानके स्वरूपका चिंतन करनेसे आत्मा भानमें आता है, परन्तु भगवानकी देहसे भान प्रगट नहीं होता। जिसे संपूर्ण ऐश्वर्य प्रगट हो उसे भगवान कहा जाता है। जैसे यदि भगवान वर्तमानमें होते, और आपको बताते तो आप न मानते; इसी तरह वर्तमानमें ज्ञानी हो तो वह माना नहीं जाता। स्वधाम पहुंचनेके बाद लोग कहते हैं कि ऐसा ज्ञानो होनेवाला नहीं है । पीछेसे जीव उसकी प्रतिमाकी पूजा करते हैं; परन्तु वर्तमानमें प्रतीति नहीं करते। जीवको ज्ञानीकी पहचान प्रत्यक्षमें, वर्तमानमें नहीं होती।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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